________________
भावना द्वात्रिंशतिका]
[१४५ मुनि चक्री शक्री के हिय में, जिस अनन्त का ध्यान रहे। निर्मल जल की सरिता सदृश, हिय में निर्मल ज्ञान बहे ॥१२॥ दर्शन-ज्ञान स्वभावी जिसने, सब विकार ही वमन किये। परम ध्यान गोचर परमातम परमदेव मम हृदय रहे ॥१३॥ जो भव-दुख का विध्वंसक है विश्वविलोकी जिसका ज्ञान। योगीजन के ध्यानगम्य वह, बसे हृदय में देव महान ॥१४॥ मुक्तिमार्ग का दिग्दर्शक है, जन्म-मरण से परम अतीत। निष्कलंक त्रैलोक्यदर्शि वह, देव रहे मम हृदय समीप ॥१५॥ निखिल विश्व के वशीकरण वे, राग रहे न द्वेष रहे। शुद्ध अतीन्द्रिय ज्ञानस्वरूपी, परम देव मम हृदय रहे ॥१६॥ देख रहा जो निखिल विश्व को, कर्मकलंक विहीन विचित्र। स्वच्छ विनिर्मल निर्विकार वह, देव करे मम हृदय पवित्र ॥१७॥ कर्मकलंक अछूत न जिसका, कभी छू सके दिव्य प्रकाश। मोह तिमिर को भेद चला जो, परम शरण मुझको वह आप्त ॥१८॥ जिसकी दिव्य ज्योति के आगे, फीका पड़ता सूर्य प्रकाश। स्वयं ज्ञानमय स्वपर प्रकाशी, परमशरण मुझको वह आप्त ॥१९॥ जिसके ज्ञानरूप दर्पण में, स्पष्ट झलकते सभी पदार्थ । आदिअंत से रहित शांत शिव, परम शरण मुझको वह आप्त ॥२०॥ जैसे अग्नि जलाती तरु को, तैसे नष्ट हुये स्वयमेव । भय विषाद चिन्ता सब जिसके परम शरण मुझको वह देव ॥२१॥ तृण, चौकी, शिल, शैल, शिखर नहिं आत्म-समाधि के आसन। संस्तर पूजा संघ सम्मिलन, नहीं समाधी के साधन ॥२२॥ इष्ट-वियोग अनिष्ट-योग में, विश्व मानता है मातम । हेय सभी हैं विश्व-वासना, उपादेय निर्मल आतम ॥२३॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org