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________________ स्वरूपसंबोधन स्तोत्र [१३९ सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों अपने शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति अर्थात् संसार से मुक्त होने के कारण हैं । आत्मा के वास्तविक स्वरूप या सात तत्त्वों के सच्चे श्रद्धान को तो सम्यग्दर्शन कहते हैं। पदार्थों के वास्तविकपने से निर्णय करने को सम्यग्ज्ञान कहते हैं। यह सम्यग्ज्ञान दीपक की तरह अपना तथा अन्य पदार्थों का प्रकाशक होता है। अज्ञान निवृत्ति रूप जो फल है उससे कथंचित् भिन्न भी है। जो अपनी ही क्रम-क्रम से होने वाली ज्ञानदर्शनादिक पर्यायों में स्थिररूप आलम्बन है उसे सम्यग्चारित्र कहते हैं । अथवा सांसारिक सुख-दुःखों में मध्यस्थ भाव रखने को सम्यग्चारित्र कहते हैं या मैं ज्ञाता हूँ, मैं दृष्टा हूँ, अपने कर्तव्य के फलस्वरूप सुख-दुःखों का भोगने वाला स्वयं अकेला ही हूँ, बाह्य स्त्री पुत्रादि पदार्थों का मेरे से कोई सम्बन्ध नहीं है-इत्यादि अनेक प्रकार की शुद्ध आत्मस्वरूप में तल्लीन करानेवाली भावनाओं की दृढ़ता को भी सम्यक्चारित्र कहते हैं ॥११-१४॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को जो ऊपर के शोकों में मोक्षप्राप्ति का मूल कारण बताया है । उनके सहकारी कारण देशकालादिक को व अनशन अवमौदर्य आदि बाह्य तप को समझना चाहिए ॥ १५ ॥ इस प्रकार तर्क वितर्क के साथ आत्मस्वरूप को अच्छी तरह जानकर सुख में व दुःख में यथाशक्ति आत्मा को नित्य ही राग-द्वेष रहित चिन्तवन करना चाहिए । अर्थात् सुख सामग्री के मिलने पर राग नहीं करना चाहिए और अनिष्ट समागम में द्वेष नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये सब इष्ट अनिष्ट पदार्थ आत्मा की कुछ भी हानि नहीं कर सकते । इनका सम्बन्ध सिर्फ शरीर से रहता है, ऐसा विचार रखना चाहिए ॥ १६ ॥ . जैसे नीले रंग के कपड़े पर केशर का रंग नहीं चढ़ सकता, वैसे ही क्रोधादि कषायों से रंजायमान हुए मनुष्य का चित्त, वस्तु के असली स्वरूप को नहीं पहिचान सकता ॥१७॥ आचार्य व्यवहारी जीव से कहते हैं कि हे भाई ! जब राग-द्वेष के दूर करने के बिना आत्महित नहीं हो सकता, तब तुमको राग-द्वेष दूर करने के लिए शरीरादिक परपदार्थों का मोह त्याग कर और संसार, शरीर व भोगों से उदासीन भाव धारण करके तत्त्व विचार में तन्मय रहना चाहिए ॥१८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003172
Book TitleBruhad Adhyatmik Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Devlali
PublisherKundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind
Publication Year2008
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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