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स्वरूपसंबोधन स्तोत्र
[१३५ जिसप्रकार सुवर्ण-पाषाण में सोना, दूध में घी और तिलों में तेल रहता है उसीप्रकार शरीर में शिवस्वरूप आत्मा विराजमान है। जैसे काष्ठ के भीतर आग शक्तिरूप से रहती है उसी प्रकार शरीर के भीतर यह शुद्ध आत्मा विराजमान है। इस प्रकार जो समझता है, वही वास्तव मे पण्डित है ॥२३-२४॥
हिन्दी अनुवाद
मंगलाचरण करते हुये श्री भट्टाचार्य अकलंक कहते हैं कि जो अविनश्वर, ज्ञानमूर्ति, परमात्मा, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों से, रागादि भावकों से, व शरीररूप नोकर्म से मुक्त (रहित) हैं और सम्यकज्ञान आदि अपने स्वाभाविक गुणों से अमुक्त (युक्त) हैं, उन परमानन्दमय परमात्मा को नमस्कार करता हूँ॥१॥
वह परमात्मा आत्मरूप होने से कारणस्वरूप है और ज्ञान-दर्शनरूप होने से कार्यस्वरूप भी है। इसी तरह केवलज्ञान के द्वारा जानने योग्य होने से ग्राह्य स्वरूप है और इन्द्रियों के द्वारा न जानने योग्य होने से अग्राह्य स्वरूप भी है॥२॥
प्रमेयत्वादिक धर्मों की, अपेक्षा से वह परमात्मा अचेतनरूप है और ज्ञानदर्शन की अपेक्षा से चेतनरूप भी है अर्थात् दोनों अपेक्षाओं से चेतन-अचेतन स्वरूप है॥३॥
वह परमात्मा ज्ञान से भिन्न है और ज्ञान से भिन्न नहीं भी है । अर्थात् ज्ञान से कथंचित् (किसी अपेक्षा से) भिन्न है सर्वथा (सब अपेक्षाओं से) भिन्न भी नहीं है। इसीप्रकार वह परमात्मा ज्ञान से-अभिन्न भी नहीं है अर्थात् ज्ञान से कथंचित् अभिन्न है सर्वथा अभिन्न भी नहीं है; क्योंकि पहिले पिछले सब ज्ञानों का समुदाय ही मिलकर आत्मा कहलाता है ॥४॥
वह अरहन्त परमात्मा अपने परम औदारिक शरीर के बराबर है और बराबर भी नहीं है अर्थात् समुद्घात (मूल शरीर में रहते हुए भी आत्मा के प्रदेशों का कारण विशेष से कार्माण आदि शरीरों के साथ बाहर निकलना) अवस्था में जिस समय केवली भगवान की आत्मा के प्रदेश सम्पूर्ण लोकाकाश में फैल जाते हैं, उस समय आत्मा औदारिक शरीर के बराबर नहीं है । इसी
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