________________
परमानन्द स्तोत्र ]
[१३३ श्री सर्वज्ञदेव ने परमात्मा का स्वरूप चिदानन्दमय, शुद्ध, रूपरसादि आकार से रहित, अनेक प्रकार के रोगों से सर्वथा शून्य, अनन्त सुख विशिष्ट व सर्व परिग्रह रहित बताया है। निश्चयनय से आत्मा का आकार लोकाकाश के समान असंख्यातप्रदेशी तथा व्यवहार नय से प्राप्त छोटे व बड़े शरीर के समान बताया है ॥१३-१४॥
इसप्रकार ऊपर कहे हुए परमात्मा के शुद्ध स्वरूप को योगीपुरुष जिस समय निर्विकल्प समाधि के द्वारा जान लेता है, उसी समय उस योगी का चित्त आकुलता रहित स्थिर होता है और अज्ञान का नाश हो जाता है ॥१५॥
वह परमध्यानी योगी मुनि ही परमब्रह्म कर्मों को जीतने से जिन, शुद्धरूप हो जाने से परम आत्मतत्त्व, जगतमात्र के हित का उपदेशक हो जाने से परमगुरु, समस्त पदार्थों के प्रकाश करने वाले ज्ञान से युक्त हो परमध्यान व परम तपरूप परमात्मा के यथार्थ स्वरूपमय हो जाता है। वही परमध्यानी मुनि ही सर्व प्रकार के कल्याणों से युक्त, परमसुख का पात्र, शुद्ध चिद्रूप, परम शिव कहलाता है और वही परमानन्दमय, सर्वसुखदायक, परम चैतन्य आदि अनन्त गुणों का समुद्र हो जाता है ।।१६-१९ ॥
परम आह्लादयुक्त, रागद्वेषरहित अरहंतदेव को जो ज्ञानी पुरुष अपने देहरूपी मन्दिर में विराजमान देखता व जानता है, वस्तुतः वही पुरुष पण्डित है ॥२०॥
आकाररहित, शुद्ध, निजस्वरूप में विराजमान, विकाररहित, कर्ममल से शून्य और क्षायिक सम्यग्दर्शनादि अष्टगुणों से सहित सिद्ध परमेष्ठि यों के स्वरूप का चिन्तवन करे ॥२१॥
सिद्ध परमेष्ठी के समान परमज्योतिस्वरूप केवलज्ञानादि गुणों की प्राप्ति के लिए जो पुरुष अपनी आत्मा को परमानन्दमय, चैतन्यचमत्कार-युक्त जानता है, वही वास्तव में पण्डित है ।।२२।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org