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स्वयंभू स्तोत्र ]
[११३ है अनेकान्त भी अनेकान्त, साधत प्रमाण नय, बिना ध्वांत। सप्रमाण दृष्टि है अनेकान्त, कोई नय-मुख से है एकान्त ॥१०३ ॥
निरुपम प्रमाण से सिद्ध धर्म,
सुखकर हितकर गुण कहत मर्म। अर जिन! तुम सम जिन तीर्थनाथ,
नहिं कोई भवि बोधक सनाथ ॥१०४॥
मति अपनी के अनुकूल नाथ!
आगम जिन कहता मुक्तिनाथ। तद्वत गुण अंश कहा मुनीश!
जातें क्षय हों मम पाप ईश॥१०५ ॥
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