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स्वयंभू स्तोत्र ]
[१११ हे धीर! आपका रूप सार, भूषण आयुध वसनादि टार। विद्या दम करुणामय प्रसार, कहता प्रभु दोष रहित अपार ॥१४॥
तेरा वपु भामण्डल प्रसार, हरता सब बाहर तम अपार। तव ध्यान तेज का है प्रभाव, अन्तर अज्ञान हरै कुभाव ॥९५ ।।
सर्वज्ञ ज्योति से जो प्रकाश, तेरी महिमा का जो विकाश। है कौन सचेतन प्राणी नाथ, जो नमन करै नहिं नाथ माथ ॥१६॥
तुम वचनामृत तत्त्व प्रकाश, सब भाषामय होता विकाश। सब सभा व्यापकर तृप्तकार, प्राणिन को अमृतवत् विचार ॥९७॥
तुम अनेकांत मत ही यथार्थ, यातें विपरीत नहीं यथार्थ। एकान्त दृष्टि है मृषा वाक्य, निज घातक सर्व अयोग्य वाक्य ॥१८॥
एकांती तपसी मान धार, निज दोष निरख गज नयन धार। ते अनेकांत खण्डन अयोग्य, तुझ मत लक्ष्मी के हैं अयोग्य ॥९९ ॥
एकांती निज घातक जु दोष, समरथ नहिं दूर करण सदोष । तुम द्वेष धार निज हननकार, मानैं अवाच्य सब वस्तु सार ॥१०० ॥
सत् एक नित्य वक्तव्य वाक्य, या तिन प्रतिपक्षी नय सुवाक्य। सर्वथा कथन में दोषरूप, यदि स्याद्वाद हों पुष्टरूप॥१०१॥
सर्वथा नियम का त्यागकार, जिस नय श्रुत देखा पुष्टकार। है'स्यात' शब्द तुम मत मंझार, निज घाती अन्य नलखें सार॥१०२॥
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