________________
[१०७
स्वयंभू स्तोत्र ]
श्रीकुन्थुनाथजिन-स्तुति
(छन्द त्रोटक) जय कुन्थुनाथ नृप चक्रधरं,
यति हो कुन्थवादि दया परं। तुम जन्म-जरा मरणादि शमन,
शिवहेतु धर्मपथ प्रगट करन ॥८१॥
तृष्णाग्नि दहत नहिं होय शमन,
मन-इष्ट भोगकर होय बढ़न। तन-ताप-हरण कारण भोगं,
इम लख निजविद् त्यागे भोगं ।।८२ ॥
बाहर तप दुष्कर तुम पाला,
जिन आतम ध्यान बढ़े आला। द्वय ध्यान अशुभ नहिं नाथ करे,
उत्तम द्वय ध्यान महान धरे ॥८३ ॥
निज घाती कर्म विनाश किये,
रत्नत्रय तेज स्ववीर्य लिये। सब आगम के वक्ता राजै,
निर्मल नभ जिम सूरज छाजै ॥८४॥
यतिपति तुम केवलज्ञान धरे,
ब्रह्मादि अंश नहिं प्राप्त करे। निज हित रत आर्य सुधी तुमको,
अज ज्ञानी अर्ह नमैं तुमको ॥८५ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org