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स्वयंभू स्तोत्र ]
[१०३ श्री धर्मनाथ जिन-स्तुति
(स्रग्विणी छन्द) धर्म सत् तीर्थ को जग प्रवर्तन किया,
धर्म ही आप हैं साधुजन लख लिया। ध्यानमय अग्नि से कर्मघन दग्ध कर,
सौख्य शाश्वत लिया सत्त्व शंकर अमर ॥७१ ।।
देव मानव भविकवृन्द से सेवितं,
बुद्ध गणधर प्रपूजित महाशोभितं । जिस तरह चन्द्र नभ में सुनिर्मल लसे,
तारका वेष्ठितं शांतिमय हुल्लसे॥७२ ।।
प्रतिहारज विभव आपके राजती,
देह से भी नहीं रागता छाजती। देव मानव सुहित मोक्षमग कह दिया,
होय शासन फलं यह न चित में दिया ॥७३॥
आपकी मन वचन काय की सब क्रिया,
___ होय इच्छा बिना कर्म कृत यह क्रिया। हे मुने! ज्ञान बिन है न तेरी क्रिया,
चित नहीं कर सकै भान अद्भुत क्रिया ॥७४॥
आपने मानुषी भाव को लांघकर,
देव गण से महा पूज्यपन प्राप्त कर। हो महादेव आप, हे धरमनाथजी,
दीजिए मोक्ष पद हाथ श्री साथजी ।।७५ ॥
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