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[१०१
स्वयंभू स्तोत्र ]
श्रीअनन्तनाथ जिन-स्तुति
(पद्धरि छन्द) चिर चितवासी मोही पिशाच,
तन जिस अनन्त दोषादि राच। तुम जीत लिया निज रुचि प्रसाद,
भगवन अनन्त जिन सत्य वाद ॥६६॥
कल्मषकारी रिपु चव कषाय,
मन्मथमद रोग जु तापदाय। निज ध्यान औषधि गुण प्रयोग,
नाशे हूवे सबवित् सयोग ॥६७॥
है खेद-अम्बु भयगण-तरंग,
ऐसी सरिता तृष्णा अभंग। सोखी अभंग रविकर प्रताप,
हो मोक्ष-तेज जिनराज आप ॥१८॥
तुम प्रेम करें वे धन लहंत,
तुम द्वेष करे हो नाशवन्त। तुम दोनों पर हो वीतराग,
तुम धारत हो अद्भुत सुहाग ॥६९॥
तुम ऐसे हो वैसे मुनीश,
मुझ अल्प बुद्धि का कथन ईश। नहिं समरथ सर्व महात्म ज्ञान,
सुखकर अमृत-सागर समान ७० ॥
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