________________
स्वयंभू स्तोत्र ]
[ ९७ श्री वासुपूज्य जिन-स्तुति
(छन्द) तुम्हीं कल्याण पञ्च में पूजनीक देव हो,
शक्र राज पूजनीक वासुपूज्यदेव हो। मैं भी अल्पधी मुनीन्द्र पूज आपकी करूँ,
भानु के प्रपूज काज दीप की शिखा धरूँ ॥५६॥
वीतराग हो तुम्हें न हर्ष भक्ति कर सके,
वीतद्वेष हो तुम्हीं, न क्रोध शत्रु हो सके। सार गुण तथापि हम कहें महान भाव से,
हो पवित्र चित्त हम हटें मलीन भाव से।।५७॥
पूजनीक देव आप पूजके सुचाव से,
बाँधते महान पुण्य जन विशुद्ध भाव से। अल्प अघ न दोषकर यथा न विष कणा करे,
शीत शुचि समुद्र नित्य शुद्ध ही रहा करे।।५८ ॥
वस्तु बाह्य है निमित्त पुण्य पाप भाव का,
___ है सहाय मूलभूत अन्तरंग भाव का। वर्तता स्वभाव में उसे सहायकार है,
___मात्र अन्तरंग हेतु कर्म बन्धकार है ।।५९ ॥
बाह्य अन्तरंग हेतु पूर्णता लहाय है,
कार्य सिद्ध तहां होय द्रव्यशक्ति पाय है। और भाँति मोक्षमार्ग होय ना भवीनि को,
आप ही सुवन्दनीय हो गुणी ऋषीनि को ॥६० ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org