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वैराग्य पाठ संग्रह
आराधना का फल आराधना का फल देखो जिनवर दिखा रहे। अपना सर्वस्व अपने में प्रभुवर बता रहे ।।टेक।। देखो तुम ज्ञानदृष्टि से प्रभु तृप्त निज में ही। नाशा दृष्टि दर्शा रही सुख शान्ति निज में ही॥ निस्सार जग के वैभव अरु पंचेन्द्रिय भोग रे ।। आराधना. ॥१॥ क्रमरूप सहज होता है सब ही का परिणमन। कर्तृत्व मिथ्या क्यों करे किंचित् न हो फिरण। ज्ञातृत्व का आनन्द तो प्रभुवर दर्शा रहे॥ आराधना. ।।२।। अतीन्द्रिय यह अनन्त दर्शन ज्ञान सुख वीरज। निर्मुक्त अक्षय प्रभुतामय छूती न कर्म रज॥ ऐसी महिमा अपने में ही अपने से प्रगटे रे॥ आराधना. ॥३॥ चैतन्य रत्नाकर में अपने रत्न हैं अनन्त। नहिं केवलज्ञान में भी आया आदि अरु अन्त ॥ है सहज प्राप्त उनको अपने में जो गहरे उतरे।। आराधना.॥४॥ सोचो चिर से भ्रमते-भ्रमते क्या तुमने है पाया ? स्व के जीवन में पाई है क्या सच्चे सुख की छाया।। चंचलता छोड़ो स्थिरता में ही सुख विलसे रे।। आराधना. ।।५।। उसकी तो चाह नहीं होती जो अपने में नहीं हो। दुःख दारिद्र बंधन रोगादिक को इच्छे कौन कहो? प्रभुता सुख ज्ञान विभव मुक्ति निज में ही प्रगटेरे। आराधना. ॥६॥ कुछ कमी नहीं शुद्धातम है परिपूर्ण निज में ही। है अपने में ही साध्य और साधन भी निज में ही। अनुभव में प्रत्यक्ष देखे तब निज महिमा आवेरे॥ आराधना. ॥७॥
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