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वैराग्य पाठ संग्रह
है रूप निज एकत्व - विभक्त सहज जाना । भोगों से अति निरपेक्ष निज स्वाधीन सुख माना || नहीं चाह कुछ पर की रही निष्काम रहूँगा | जिनधर्म... ॥५॥ अक्षय विभव निज का परम उत्कृष्ट है देखा ।
अब तो लगे जग का सभी मिथ्या असत् लेखा ॥ निर्ग्रन्थ पद भाता हुआ निर्ग्रन्थ रहूँगा | जिनधर्म...||६|| शक्ति अनन्त देखते सन्तुष्ट हो गया । प्रभुता अलौकिक देखते अति तृप्त हो गया || नहिं और कुछ सुहाय निज में मग्न रहूँगा | जिनधर्म...॥७॥ उत्साह निवृत्त हो गया पर जानने का भी । फिर भाव कैसे आयेगा दुर्भोगों का सही ॥ निशल्य शान्त चित्त हुआ निकलंक रहूँगा ।। जिनधर्म... ॥ ८ ॥ शुभभाव रूप ब्रह्मचर्य में तोष नहिं आवे । परमार्थता परिपूर्णता को चित्त ललचावे ॥ निजब्रह्म पाया है परम ब्रह्मचर्य धरूँगा | जिनधर्म... ॥ ९ ॥ कुछ भय नहीं शंका नहीं भगवान हैं पाये । ज्ञानी गुरु पाकर परम आनन्द विलसाये ॥ जिनवाणी सी माता पाई भव में ना भ्रमूँगा | जिनधर्म... ॥१०॥ सब कर्मफल संन्यास की अब भावना भाऊँ । निष्कर्म ज्ञायकभाव में ही सहज रम जाऊँ ॥ बोधिसमाधि को पाकर निज साध्य लहूँगा | जिनधर्म... ||११||
जिसे अपने चैतन्यनाथ का भान नहीं एवं जिननाथ के प्रति भक्ति नहीं, वह अनाथ है ।
पुण्य की विभूति सहजपने भी मिले तो भोगनेयोग्य नहीं और शुद्धात्मा बहुत पुरुषार्थ करके भी अनुभव के योग्य है ।
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