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वैराग्य पाठ संग्रह
ब्रह्मचर्य ध्रुव ब्रह्ममयी ब्रह्मचर्य की अद्भुत महिमा, सुनो भव्य कल्याणमयी। जिससे कटती भव की संतति दुःखमयी अज्ञानमयी॥टेक।। परमब्रह्म शाश्वत परमातम नित्य निरंजन देव है। सहजज्ञानमय सहजानन्दमय सहजमुक्त स्वयमेव है। निर्विकल्प आह्लादरूप हो स्वानुभूति आनन्दमयी ॥१।।जिससे.. सहज तृप्त हो सहज तुष्ट हो सहज दृष्टि टिक जाती है। सर्व समर्पण हो आतम प्रति, सहज मग्नता होती है।। परिणति में यह ध्रुव प्रियतम का मिलन परम आनन्दमयी॥२॥जिससे ज्ञायक में अपनत्व हुआ फिर ज्ञेय भिन्न दिखलाते हैं। चाहे जैसे सुन्दर होवें, मोह नहीं उपजाते हैं।। जीवन निर्विकार हो जाता सहज शुद्ध चिद्रूपमयी ॥३||जिससे.. सतत् सदा ही स्वयं स्वयं में सहज ही अमृत झरता है। शुद्ध चेतना का विलास ही सहज अनन्त पसरता है। भेद विकल्प भी नहीं उपजावे चर्या होवे ब्रह्ममयी॥४॥जिससे.. अक्षय अद्भुत प्रभुता प्रगटे, नशते सर्व विभाव हैं। सहज अलौकिक शुद्ध चेतनामयी होंय सब भाव हैं।। नित्य शुद्ध शाश्वत वैभव है साम्राज्य है ज्ञानमयी ॥५||जिससे.. धन्य धन्य निर्मोही हो निर्ग्रन्थ होय कर कल्याणी। जीवराज को वरण किया है, परिणति हुई मुक्ति रानी।। तिहुँ जगमाँहीं पूज्य हुई है स्वयं सहज ही मुक्तिमयी॥६॥जिससे.. आत्मविमुख हो पर को देखे, वह तो मूढ़ गंवार रे। भोग-वासनाओं में फंसकर घूमे बहु संसार रे।। सर्व समागम आज मिला है छोड़ो परिणति रागमयी ।।७||जिससे
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