SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 92 वैराग्य पाठ संग्रह दोष देखना किन्तु उदय का, कही अनीति जिनागम में। उदय उदय में ही रहता है, नहिं प्रविष्ट हो आतम में॥६।। भेदज्ञान कर द्रव्यदृष्टि धर, स्वयं स्वयं में मग्न रहो। स्वाश्रय से ही शान्ति मिलेगी, आकुलता नहिं व्यर्थ करो॥७॥ अशरण जग में अरे आत्मन् ! नहीं कोई हो अवलम्बन। तजकर झूठी आस पराई, अपने प्रभु का करो भजन ॥८॥ इन्द्रादिक से सेवक चक्री कामदेव से सुत जिनके। देखो एक समय पहले भी नहिं आहार हुए उनके ॥९॥ हई योग्यता सहजपने ही सर्व निमित्त मिले तत्क्षण। मंगल स्वप्नों का फल सुनकर श्री श्रेयांस थे हर्ष मगन ॥१०॥ देखा आते ऋषभ मुनि को जातिस्मरण हुआ सुखकार। नवधा भक्ति पूर्वक नृप ने दिया इक्षुरस का आहार ॥११|| पंचाश्चर्य किये देवों ने रत्न पुष्प थे बरसाए। पवन सुगंधित शीतल चलती, जय जय से नभ गुंजाए॥१२॥ धन्य पात्र हैं धन्य हैं दाता, धन्य दिवस धनि हैं आहार। दानतीर्थ का हुआ प्रवर्तन, घर-घर होवे मंगलाचार ॥१३॥ तिथि वैशाख सुदी तृतीया थी अक्षय तृतीया पर्व चला। आदीश्वर की स्तुति करते सहजहि मुक्ति मार्ग मिला॥१४॥ ऋषभदेव सम रहे धीरता आराधन निर्विघ्न खिले। भोजन भी न मिले फिर भी नहिं आराधन से चित्त चले॥१५|| थकित हुआ हूँ भव भोगों से लेश मात्र नहिं सुख पाया। हो निराश सब जग से स्वामिन् चरण शरण में हूँ आया॥१६॥ यही भावना स्वयं स्वयं में तृप्त रहूँ प्रभु तुष्ट रहूँ। ध्येय रूप निज पद को ध्याते ध्याते शिवपद प्रगट करूँ॥१७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003171
Book TitleVairagya Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
PublisherKundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publication Year2010
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy