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वैराग्य पाठ संग्रह निज के लिये निज में भरा है सुख अतीन्द्रिय।
भोगूंगा अनंत काल तक बनूँगा जितेन्द्रिय ॥ है द्वार मुक्ति का मिला अब मैं न रुलूँगा। नरभव.......॥८॥
जिनको अनंतों बार भोग-भोग कर छोड़ा।
हैं वे ही भोग, नहीं नवीन हैं, चित्त है मोड़ा। अज्ञान वश उच्छिष्ट भोगी अब न बनूँगा। नरभव.........॥९॥
दुख के पहाड़ बाह्य की प्रवृत्ति मार्ग में।
आनन्द की हिलोरें हैं निवृत्ति मार्ग में। उल्लास से निवृत्ति के मारग में बदूंगा। नरभव.............॥१०॥
इस मार्ग में कुछ पाप तो होते ही नहीं हैं।
रे पूर्व बंध भी सहज खिरते ही सही हैं। कैसे कहो फिर दुख की कल्पना भी करूँगा। नरभव......॥११॥
निंदा करें वे ही जिन्हें कुछ ज्ञान नहीं है।
अनुमोदना करते जिन्हें निज ज्ञान सही है। कुछ हर्ष या विषाद अब मन में ना धरूँगा। नरभव.......॥१२॥
असहाय परिणमन है सर्व द्रव्यों का सदा।
बाँछा सहाय की नहीं मन में भी हो कदा॥ विश्वास निजाश्रय से ही शिवपद भी लहँगा। नरभव.....॥१३ ।।
स्वभाव से निर्मुक्त हूँ स्वीकार है हुआ।
स्वभाव के सन्मुख सहज पुरुषार्थ है हुआ।। ध्याऊँ सहज शुद्धात्मा सन्तुष्ट रहूँगा। नरभव.........॥१४॥
भवितव्य भली काललब्धि आई है अहो।
निमित्त भी मिले मिलेंगे योग्य ही अहो।। हर हालत में आराधना में रत ही रहूँगा। नरभव........॥१५॥
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