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वैराग्य पाठ संग्रह
धन-कन-कंचन राजसुख, पराधीन सब जान। सहज प्राप्त स्वाधीन नित, सुखमय आतमज्ञान ॥१२॥
आत्मस्वभाव ही धर्म है, सम्यग्दर्शन मूल। बाहर में क्यों ढूढ़ते, निजस्वभाव को भूल।
स्वाधीन-मार्ग स्वाधीनता का मार्ग तो निर्ग्रन्थ मार्ग है। आराधना का मार्ग ही स्वाधीन मार्ग है।।टेक।। स्वाधीनता पर से नहीं स्व से सदा आती। निज में ही तृप्त परिणति स्वाधीन हो जाती॥ संतुष्ट है निज में अहो स्वाधीन है वह ही। इच्छाओं के वशवर्ती भोगाधीन है वह ही।। जो भोगों का है दास वह सब जग का दास है। जो भोगों से उदास प्रभुता उसके पास है। भोगों से सुख की कल्पना संसारमार्ग है। स्वाधीनता...॥१॥ प्रभु वीतरागी का अहो स्वाधीन नाम है। रागादि ही जिसके नहीं पर से क्या काम है ? मुनिराज हैं स्वाधीन बाह्य साधन के बिना। एकाकी जंगल में विचरते आकुलता बिना ।। देखो सुरक्षा का नहीं कुछ भी वहाँ साधन। फिर भी निर्भय रह कर करें शुद्धातम आराधन। अस्त्रों-शस्त्रों का संग्रह तो भय का ही मार्ग है।।स्वाधीनता...॥२॥ धन के बिना निर्धन अरे अधीन सा दीखे। तृष्णा के वशवर्ती धनवान भी दुःखी दीखे। भोगों को पाने के लिए मूरख रहे रोता। पर भोगों को पाकर भी कौन तृप्त है होता ?
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