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________________ 56 मेलि खटाई माजिये, पारा परगट रूप । शुक्लध्यान अभ्यासतें, दर्शन ज्ञान अनूप ॥ २४ ॥ कहि उपदेश 'बनारसी' चेतन अब कछु चेत । आप बुझावत आपको, उदय करन के हेत ॥ २५॥ वैराग्य पाठ संग्रह निर्ग्रन्थ भाव स्तवन पर से अति निरपेक्ष है, प्रभुता अपरम्पार । अहो अकिंचननाथ को, वंदन अगणित बार | (रोला) तजा अनादि मोह सजा निजपद अविकारी, समयसारमय हुए सहज चैतन्य विहारी । परम इष्ट ज्ञायक स्वभाव में तृप्त हुए थे, वीतराग-विज्ञान रूप परिणमित हुए थे || १ || कुछ अनिष्ट नहीं दिखा कल्पना मिथ्या छूटी, क्रोध भाव की संतति भी फिर सहजहि टूटी। हीनाधिक नहीं दिखें सभी भगवान दिखावें, अरे मान के भाव सहज ही नहिं उपजावें ॥ २ ॥ पूर्ण सिद्ध सम आतम जब दृष्टि में आया, गुप्त पापमय माया का तब भाव नशाया । छल प्रपंच सब भगे सरलता हुई संगिनी, मुक्ति-मार्ग में यही परिणति स्व - पर नंदनी ॥ ३ ॥ अक्षय आत्मविभव पाया तब लोभ नशाया, अनंत चतुष्टय सहजपने प्रभुवर प्रगटाया । परम पवित्र हुए निर्दोष निरामय स्वामी, अहो पतित-पावन कहलाते त्रिभुवन नामी ||४|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003171
Book TitleVairagya Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
PublisherKundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publication Year2010
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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