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वैराग्य पाठ संग्रह
तिमिर रोग सों नैन ज्यों, लखै और को और। त्यों तुम संशय में परे, मिथ्यामति की दौर ॥१२॥ ज्यों औषधि अंजन किये, तिमिर-रोग मिट जाय। त्यों सतगुरु उपदेश तें, संशय वेग विलाय॥१३॥ जैसे सब यादव जरे, द्वारावति की आगि। त्यों माया में तुम परे, कहाँ जाहुगे भागि॥१४॥ दीपायन सों ते बचे, जे तपसी निरग्रंथ। तजि माया समता गहो, यहै मुकति को पंथ॥१५।। ज्यों कुधातु के फेंटसों, घट-बढ़ कंचन कांति। पाप-पुण्य कर त्यों भये, मूढातम बहुभांति॥१६।। कंचन निज गुण नहिं तजे, हीन बानके होत। घटघट अंतर आतमा, सहज स्वभाव उदोत ॥१७॥ पन्नापीट पकाइये, शुद्ध कनक ज्यों होय। त्यों प्रगटै परमातमा, पुण्य-पापमल खोय॥१८।। पर्व राहु के ग्रहणसों, सूरसोम छविछीन । संगति पाय कुसाधु की, सज्जन होय मलीन ।।१९।। निंबादिक चंदन करें, मलयाचल की बास। दुर्जन तैं सज्जन भये, रहत साधु के पास ॥२०॥ जैसे ताल सदा भरै, जल आवे चहुँ ओर। तैसे आस्रवद्वार सों, कर्मबंध को जोर ।।२१।। ज्यों जल आवत पूँदिये, सूखै सरवर पानि। तैसे संवर के किये, कर्मनिर्जरा जानि ।।२२।। ज्यों बूटी संयोग”, पारा मूर्छित होय । त्यों पुद्गलसों तुम मिले, आतम शक्ति समोय ।।२३।।
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