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वैराग्य पाठ संग्रह होती दूर देह की ममता, मन वाणी हो जाते मौन। गोष्ठी कथा, कुतूहल छूटें, उस सुख को नर जाने कौन ॥२०॥ वचनातीत, पक्ष च्युत सुन्दर निश्चय नय से है यह तत्व। व्यवहति पथ में प्राप्त शिष्य, वचनों द्वारा समझें आत्मत्व ।। करूँ तत्त्व का दिव्य कथन मैं, नहीं यहाँ वह शक्ति समृद्धि। जान अशक्त आपको इसमें, मौन रहे मुझसा जड़बुद्धि ।।२१।।
अमूल्य तत्त्व विचार बहु पुण्य-पुंज प्रसंग से शुभ देह मानव का मिला। तो भी अरे! भव चक्र का, फेरा न एक कभी टला ॥ सुख-प्राप्ति हेतु प्रयत्न करते, सुक्ख जाता दूर है। तू क्यों भयंकर भाव-मरण, प्रवाह में चकचूर है ।।१।। लक्ष्मी बढ़ी अधिकार भी, पर बढ़ गया क्या बोलिये । परिवार और कुटुम्ब है क्या? वृद्धिनय पर तोलिये ।। संसार का बढ़ना अरे! नर देह की यह हार है। नहिं एक क्षण तुझको अरे! इसका विवेक विचार है ।।२।। निर्दोष सुख निर्दोष आनन्द, लो जहाँ भी प्राप्त हो । यह दिव्य अन्त:तत्त्व जिससे, बन्धनों से मुक्त हो । पर वस्तु में मूर्छित न हो, इसकी रहे मुझको दया । वह सुख सदा ही त्याज्य रे! पश्चात् जिसके दुख भरा ॥३॥ मैं कौन हूँ? आया कहाँ से? और मेरा रूप क्या? सम्बन्ध दुखमय कौन है? स्वीकृत करूँ परिहार क्या । इसका विचार विवेकपूर्वक, शान्त होकर कीजिये। तो सर्व आत्मिकज्ञान के, सिद्धान्त का रस पीजिये ।।४।।
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