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वैराग्य पाठ संग्रह
आकर के उपसर्ग भले ही, कर दें इस काया का पात । नहीं किसी से भय है मुझको, जब मन में है तेरी बात।१४।। मुख्य आँख इन्द्रिय कर्षकमय, ग्राम सर्वथा मृतक समान। रागादिक कृषि से चेतन को, भिन्न जानना सम्यक्ज्ञान ।। जो कुछ होना हो सो होगा, करूँ व्यर्थ ही क्यों मैं कष्ट ? विषयों की आशा तज करके, आराधूं मैं अपना इष्ट ।।१५।। कर्मों के क्षय से उपशम से, अथवा गुरु का पा उपदेश। बनकर आत्मतत्त्व का ज्ञाता, छोड़े जो ममता निःशेष। करें निरन्तर आत्म-भावना, हो न दुःखों से जो संतप्त । ऐसा साधु पाप से जग में, कमलपत्र सम हो नहिं लिप्त ।।१६।। गुरु करुणा से मुक्ति प्राप्ति के, लिए बना हूँ मैं निर्ग्रन्थ । उसके सुख से इन्द्रिय सुख को, माने चित्त दु:ख का पंथ ।। अपनी भूल विवश नर तब तक, लेता रहा खली का स्वाद। जबतक उसे स्वच्छ मधु रसमय, नहीं शर्करा का हो स्वाद॥१७॥ ध्यानाश्रित निर्ग्रन्थ भाव से, मुझे हुआ है जो आनन्द। दुर्ध्यानाक्ष सुखों का तो फिर, कैसे करे स्मरण मतिमन्द ? ऐसा कौन मनुज है जग में, तज करके जो जलता गेह । छोड़ वापिका का शीतल जल, पड़े अग्नि में आप सनेह ।।१८॥ मोह जन्य मोक्षाभिलाषि भी, करे मोक्ष का स्वयं विरोध । अन्य द्रव्य की करें न इच्छा, जिन्हें तत्त्व का है शुभ बोध ।। आलोचन में दत्तचित्त नित, शुद्ध आत्म का जिन्हें विचार। तत्त्व ज्ञान में तत्पर मुनिजन ग्रहें नहीं ममता का भार ।।१९।। इस निर्मल चेतन के सुख का, जिस क्षण आता है आस्वाद। विषय नष्ट होते सारे तब, रस समस्त लगते निस्वाद ।।
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