________________
32
वैराग्य पाठ संग्रह बोधिदुर्लभ भावना सामग्री सभी सुलभ जग में, बहुबार मिली छूटी मुझसे। कल्याणमूल रत्नत्रय परिणति, अब तक दूर रही मुझसे। इसलिए न सुख का लेश मिला, पर में चिरकाल गँवाया है। सद्बोधिहेतु पुरुषार्थ करूँ, अब उत्तम अवसर पाया है।
धर्म भावना शुभ-अशुभ कषायों रहित होय, सम्यक्चारित्र प्रगटाऊँगा। बस निज स्वभाव साधन द्वारा, निर्मल अनर्घ्यपद पाऊँगा। माला तो बहुत जपी अबतक, अब निज में निज का ध्यान धरूँ। कारण परमात्मा अब भी हूँ, पर्यय में प्रभुता प्रकट करूँ॥
(दोहा) ध्रुव स्वभाव सुखरूप है, उसको ध्याऊँ आज। दुखमय राग विनष्ट हो, पाऊँ सिद्ध समाज ।।
वैराग्य भावना
(दोहा) बीज राख फल भोगवै, ज्यों किसान जगमाहिं। त्यों चक्री नृप सुख करै, धर्म विसारै नाहिं॥१॥
(जोगीरासा वा नरेंद्र छंद) इहविध राज करै नर नायक, भोगे पुण्य विशाल । सुख सागर में रमत निरन्तर, जात न जान्यो काल॥ एक दिवस शुभ कर्म संजोगे, क्षेमंकर मुनि वन्दे। देखे श्रीगुरु के पद पंकज, लोचन अलि आनन्दे ।।२।। तीन प्रदक्षिण दे शिर नायो, कर पूजा थुति कीनी। साधु समीप विनय कर बैठ्यौ, चरनन में दिठि दीनी॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org