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वैराग्य पाठ संग्रह
इस सम्बन्धी विपरीत मान्यता से, संसार बढ़ाया है । निज तत्त्व समझ में आने से, समरस निज में ही पाया है ॥ अशुचि भावना
है ज्ञानदेह पावन मेरी, जड़देह राग के योग्य नहीं । यह तो मलमय मल से उपजी, मल तो सुखदायी कभी नहीं ॥ भो आत्मन् श्री गुरु ने रागादिक को अशुचि अपवित्र कहा । अब इनसे भिन्न परम पावन, निज ज्ञानस्वरूप निहार अहा ॥ आस्रव भावना
मिथ्यात्व कषाय योग द्वारा, कर्मों को नित्य बुलाया है। शुभ-अशुभभाव क्रिया द्वारा, नित दुख का जाल बिछाया है ।। पिछले कर्मोदय में जुड़कर, कर्मों को ही छोड़ा बाँधा । ना ज्ञाता-दृष्टा मात्र रहा, अब तक शिवमार्ग नहीं साधा ॥ संवर भावना
मिथ्यात्व अभी सत् श्रद्धा से व्रत से अविरति का नाश करूँ । मैं सावधान निज में रहकर, निः कषाय भाव उद्योत करूँ । शुभ - अशुभ योग से भिन्न, आत्म में निष्कम्पित हो जाऊँगा । संवरमय ज्ञायक आश्रय कर, नव कर्म नहीं अपनाऊँगा ॥ निर्जरा भावना
नव आस्रव पूर्वक कर्म तजे, इससे बन्धन न नष्ट हुआ । अब कर्मोदय को ना देखूँ, ज्ञानी से यही विवेक मिला || इच्छा उत्पन्न नहीं होवें, बस कर्म स्वयं झड़ जावेंगे। जब किञ्चित् नहीं विभाव रहें, गुण स्वयं प्रगट हो जावेंगे ॥ लोक भावना परिवर्तन पंच अनेक किये, सम्पूर्ण लोक में भ्रमण किया । ना कोई क्षेत्र रहा ऐसा, जिस पर ना हमने जन्म लिया || नरकों स्वर्गों में घूम चुका, अतएव आश सबकी छोडूं । लोकाग्र शिखर पर थिर होऊँ, बस निज में ही निज को जोहूँ ।।
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