________________
21
वैराग्य पाठ संग्रह
नहिं इष्टानिष्ट विचारूँ, निज सुक्ख स्वरूप संभारूँ। दु:खमय हैं सभी कषायें, इनमें नहिं परिणति जाये ।।१३।। वेश्या सम लक्ष्मी चंचल, नहिं पकडूं इसका अंचल। निर्ग्रन्थ मार्ग सुखकारी, भाऊँ नित ही अविकारी॥१४॥ निज रूप दिखावन हारी, तव परिणति जो सुखकारी। उसको ही नित्य निहारूँ, यावत् न विकल्प निवारूँ ॥१५॥ तुम त्याग अठारह दोषा, निजरूप धरो निर्दोषा। वीतराग भाव तुम भीने, निज अनन्त चतुष्टय लीने॥१६|| तुम शुद्ध बुद्ध अनपाया, तुम मुक्तिमार्ग बतलाया। अतएव मैं दास तुम्हारा, तिष्ठो मम हृदय मंझारा॥१७॥ तव अवलम्बन से स्वामी, शिवपथ पाऊँ जगनामी। निर्द्वन्द निशल्य रहाऊँ, श्रेणि चढ़ कर्म नशाऊँ॥१८॥ जिनने मम रूप न जाना, वे शत्रु न मित्र समाना। जो जाने मुझ आतम रे, वे ज्ञानी पूज्य हैं मेरे।।१९।। जो सिद्धात्मा सो मैं हूँ, नहिं बाल युवा नर मैं हूँ। सब तैं न्यारा मम रूप, निर्मल सुख ज्ञान स्वरूप ॥२०॥ जो वियोग संयोग दिखाता, वह कर्म जनित है भ्राता। नहिं मुझको सुख दुःखदाता, निज का मैं स्वयं विधाता॥२१॥ आसन संघ संगति शाला, पूजन भक्ति गुणमाला। इनतें समाधि नहिं होवे, निज में थिरता दु:ख खोवे ॥२२।। घिन गेह देह जड़ रूपा, पोषत नहिं सुक्ख स्वरूपा। जब इससे मोह हटावे, तब ही निज रूप दिखावे॥२३॥ वनिता बेड़ी गृह कारा, शोषक परिवार है सारा। शुभ जनित भोग जो पाई, वे भी आकुलता दायी॥२४।। सबविधि संसार असारा बस निज स्वभाव ही सारा। निज में ही तृप्त रहूँ मैं, निज में संतुष्ट रहूँ मैं॥२५।। निज स्वभाव का लक्ष्य ले, मैं→ सकल विकल्प। सुख अतीन्द्रिय अनुभवू, यही भावना अल्प ॥२६।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org