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वैराग्य पाठ संग्रह सामायिक पाठ पंच परमगुरु को प्रणमि, सरस्वती उर धार। करूँ कर्म छेदंकरी सामायिक सुखकार ।।१।।
(छन्द-चाल) आत्मा ही समय कहावे, स्वाश्रय से समता आवे। वह ही सच्ची सामायिक, पाई नहीं मुक्ति विधायक ॥२॥ उसके कारण मैं विचारूँ, उन सबको अब परिहारूँ। तन में 'मैं हूँ मैं विचारी, एकत्वबुद्धि यों धारी॥३।। दुखदाई कर्म जु माने, रागादि रूप निज जाने। आस्रव अरु बन्ध ही कीनो, नित पुण्य-पाप में भीनो॥४॥ पापों में सुख निहारा, पुण्य करते मोक्ष विचारा। इन सबसे भिन्न स्वभावा, दृष्टि में कबहुँ न आवा॥५॥ मद मस्त भयो पर ही में, नित भ्रमण कियो भव-भव में। मन वचन योग अरु तन से, कृत कारित अनुमोदन से ॥६॥ विषयों में ही लिपटाया, निज सच्चा सुख नहीं पाया। निशाचर हो अभक्ष्य भी खाया, अन्याय किया मन भाया ।।७।। लोभी लक्ष्मी का होकर, हित-अहित विवेक मैं खोकर। निज-पर विराधना कीनी, किञ्चित् करुणा नहिं लीनी।।८।। षट्काय जीव संहारे, उर में आनन्द विचारे। जो अर्थ वाक्य पद बोले, थे त्रुटि प्रमाद विष घोले ।।९।। किञ्चित् व्रत संयम धारा, अतिक्रम व्यतिक्रम अतिचारा। उनमें अनाचार भी कीने, बहु बाँधे कर्म नवीने॥१०॥ प्रतिकूल मार्ग यों लीना, निज-पर का अहित ही कीना। प्रभु शुभ अवसर अब आयो, पावन जिनशासन पायो।।११।। लब्धि त्रय मैंने पायी, अनुभव की लगन लगायी। अतएव प्रभो मैं चाहँ, सबके प्रति समता लाऊँ।१२।।
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