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वैराग्य पाठ संग्रह
अरे कलुषता पाप बंध का, कारण लखकर त्याग करो। आलस छोड़ो बनो उद्यमी, पर सहाय की चाह न हो ॥११।। पापोदय में चाह व्यर्थ है, नहीं चाहने पर भी हो। पुण्योदय में चाह व्यर्थ है, सहजपने मन वांछित हो॥१२।। आर्तध्यान कर बीज दुख के, बोना तो अविवेक अहो। धर्म ध्यान में चित्त लगाओ, होय निर्जरा बंध न हो॥१३॥ करो नहीं कल्पना असम्भव, अब यथार्थ स्वीकार करो। उदासीन हो पर भावों से सम्यक् तत्व विचार करो॥१४।। तजो संग लौकिक जीवों का, भोगों के अधीन न हो। सुविधाओं की दुविधा त्यागो, एकाकी शिव पंथ चलो॥१५॥ अति दुर्लभ अवसर पाया है, जग प्रपंच में नहीं पड़ो। करो साधना जैसे भी हो, यह नर भव अब सफल करो॥१६||
अपना स्वरूप रे जीव ! तू अपना स्वरूप देख तो अहा।
दृग-ज्ञान-सुख-वीर्य का भण्डार है भरा।।टेक।। नहिं जन्मता मरता नहीं, शाश्वत प्रभु कहा।
उत्पाद व्यय होते हुये भी ध्रौव्य ही रहा ।।१।। पर से नहीं लेता नहीं देता तनिक पर को।
निरपेक्ष है पर से स्वयं में पूर्ण ही अहा॥२।। कर्ता नहीं भोक्ता नहीं स्वामी नहीं पर का।
अत्यंताभाव रूप से ज्ञायक ही प्रभु सदा ॥३॥ पर को नहीं मेरी कभी मुझको नहीं पर की।
- जरूरत पड़े सब परिणमन स्वतंत्र ही अहा॥४॥ पर दृष्टि झूठी छोड़कर निज दृष्टि तू करे।
निज में ही मग्न होय तो आनन्द हो महा॥५॥
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