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वैराग्य पाठ संग्रह प्रियदत्त सेठ ने धर्म पर्व में, ब्रह्मचर्य का नियम लिया। सहज भाव से अनन्तमती ने, ब्रह्मचर्य स्वीकार किया। जब प्रसंग शादी का आया, बोली पितु क्या करते हो। ब्रह्मचर्य-सा नियम छुड़ा, भोगों में प्रेरित करते हो। भोगों में सुख किसने पाया, फँसें व्यर्थ अज्ञान से॥सती...॥३॥ व्रत को लेना और छोड़ना, हँसी खेल का काम नहीं। भोगों के दुख प्रत्यक्ष दीखें, अब तुम लेना नाम नहीं। गज मछली अलि पतंग हिरण, इक-इक विषयों में मरते हैं। फिर भी विस्मय मूढ़, पंचेन्द्रिय भोगों में फँसते हैं। मिर्च भरा ताम्बूल चबाते, हँसते झूठी शान से॥सती...॥४॥ चिंतामणि सम दुर्लभ नरभव, नहिं इनमें फँस जाने को। यह भव हमें सु-प्रेरित करता, निजानंद रस पाने को।। भोगों की अग्नि में अब यह, जीवन हवन नहीं होगा। क्षणिक सुखाभासों में शाश्वत सुख का दमन नहीं होगा। निज का सुख तो निज में ही है देखो सम्यग्ज्ञान से।सती...॥५॥ अब मैं पीछे नहीं हटूंगी, ब्रह्मचर्य व्रत पालूँगी। शील बाढ़ नौ धारण करके, अन्तर ब्रह्म निहारूँगी॥ नाहिं बालिका मुझको समझो, मैं भी तो प्रभु सम प्रभु हूँ। भय शंका का लेश न मुझमें, अनन्त शक्तिधारी विभु हूँ॥ मूढ़ बनो मत, स्व-महिमा पहिचानो भेद-विज्ञान से।।सती...॥६|| मिट्टी का टीला तो देखो, जल-धारा से बह जाता। धारा ही मुड़ जाती, लेकिन अचल अडिग पर्वत रहता॥ ध्रुव कीली के पास रहें, वे दाने नहिं पिस पाते हैं। छिन्न-भिन्न पिसते हैं वे ही, कीली छोड़ जो जाते हैं। निजस्वभाव को नहीं छोड़ना, सुनो भ्रात अब कान दे।।सती...॥७॥
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