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वैराग्य पाठ संग्रह तृप्ति सहज ही प्राप्य निज में निज से ही सदा। है झूठी कल्पना भोगों से तृप्ति न कदा॥ रहते अतृप्त, मूढ़ आत्मज्ञान के बिना। कितने भव यूँ ही वीत जावें संयम के बिना। होते हैं हास्य पात्र जो ले दीप भी गिरते। पाकर भी आत्मज्ञान फिर जग-जाल में फँसते॥ कल्याण का अवसर गँवावे मूढ़ भाव से। प्रभु सम ही भाऊँ भावना, छु, विभाव से॥४॥ संयममय जीवन ही अहो, ज्ञानी को शोभता। बढ़ती प्रभावना सहज होती है पूज्यता ।। जो त्यागने के योग्य ही, फिर क्यों करूँ स्वीकार । इससे अधिक क्या कायरता, नरभव की जिसमें हार ।। क्षण भी विलम्ब योग्य नहीं, कल्याणमार्ग में। निरपेक्ष हो बढ़ना मुझे अब मुक्तिमार्ग में। निर्ग्रन्थ हो आराधूं निज पद सहजभाव से।। प्रभु....॥५|| तोड़े कंगन के बंधन, सिर का मौर उतारा। धनि-धनि प्रभुवर का भाव, जिससे काम था हारा।। जिन-भावना भाते हुए गिरनार चल दिए। आसन्नभव्य दीक्षा लेने साथ चल दिए। गूंजा था जय-जयकार उत्सव धर्ममय हुआ। तपकल्याणक का शुभ नियोग देवों ने किया। साक्षात् दिगम्बर हुए अत्यन्त चाव से॥ प्रभु....॥६॥ ज्यों ही जाना यह हाल, राजुल हो गयी विह्वल। होकर सचेत शीघ्र ही, जागृत किया निज बल ।। परिवारी जन तो रागवश, अति खिन्न चित्त थे। शादी करें किसी और से, समझावते यों थे।।
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