________________
वैराग्य पाठ संग्रह
101
श्री नेमिकुमार निष्क्रमण श्री नेमि प्रभु की वंदना कर, भक्ति भाव से। प्रभु सम ही भाऊँ भावना, छु, विभाव से।।टेक।। देखा पशुओं को रुका हुआ प्रभु हो गये गम्भीर। धिक्-धिक ऐसी विषयांधता, दीखे न पराई पीर ।। इन भोगों की अग्नि में कितने जीव हैं जलते।
और भोगी भी परिपाक में, भव-भव में दुख सहते॥ पीड़ा है विषय-कषायों की, मृत्यु से भयंकर। हों सहने में असमर्थ तब फिर मूढ़ जन फँसकर॥ दोई भव नाशें, मोही व्यर्थ मोह भाव से॥ प्रभु...॥१|| ऐसी शोभा से क्या जिसमें, निज-पर का पीड़न हो। ऐसी शादी से क्या जिसमें, दुखमय भव बंधन हो।। स्वतंत्रता का हो हनन, आराधना का घात । परिग्रह के ग्रहण में होते, अगणित दुखमय उत्पात ।। रहता है चंचल चित्त सदा, ही परिग्रहवान का। विषयों में जो आसक्त उनके, नित ही मलिनता। सुख लेश भी पावे नहीं, अज्ञानभाव से। प्रभु....॥२॥ पापों के बीज इन्द्रिय सुख, तो दुखमय ही अरे। परलक्षी इन्द्रिय ज्ञान भी अज्ञान जान रे॥ अतीन्द्रिय सुख ही सुख जो पाते हैं जितेन्द्रिय। वे ही शिवसाधक हैं, जिन्हें हो ज्ञान अतीन्द्रिय॥ अतीन्द्रिय ज्ञानानंदमय, शुद्धातम ही है सार। है सहज ज्ञेय-ध्येय रूप, मुक्ति का आधार ।। शुद्धात्मा प्रभु नित्य निरंजन स्वभाव से।। प्रभु....॥३॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org