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वैराग्य पाठ संग्रह
ब्रह्मचर्य विंशतिका है परम धर्म ब्रह्मचर्य धर्म, इसमें सब धर्म समाते हैं। जितने लगते दोष यहाँ, वे सब कुशील में आते हैं।॥१॥ जो ब्रह्मचर्य पालन करते, दु:ख पास न उनके आते हैं। जो भोगों में आसक्त हुए, वे दुःख को स्वयं बुलाते हैं।॥२॥ भोगों की दाता स्त्री है, पंचेन्द्रिय भोग जुटाती है। इक बूंद और की आशा में, भोले नर को अटकाती है॥३॥ स्पर्शन में कोमल शैया, ठंडा-जल गरम-नरम भोजन। रसना को सरस प्रदान करे, शुभ गंध घ्राण के हेतु सृजन ॥४॥ चक्षु को हाव-भाव दर्शन, अरु राग वचन दे कानों को। हरती मन को बहु ढंगों से, संक्लेश करे अनजानों को॥५॥ भोले जो विषयासक्त पुरुष, वे स्त्री में फंस जाते हैं। मल माया की साक्षात् मूर्ति, अस्पृश्य जिसे मुनि गाते हैं॥६॥ स्त्री की काँख नाभि योनि, अरु स्तन के स्थानों में। सम्मूर्च्छन संज्ञी पंचेन्द्रिय, असंख्यात जीव प्रतिसमय मरें॥७॥ श्री गुरु तो यहाँ तक कहते हैं, अच्छा नागिन का आलिंगन। पर नहीं रागमय-दृष्टि से, नारी के तन का भी निरखन ॥८॥ संसार चक्र की धुरी अरे, बस नारी को बतलाया है। आधे माँ आधे पत्नी से, नाते प्रत्यक्ष दिखाया है।।९।। यदि स्त्री से विमुक्त देखो, तो नहीं किसी से भी नाता। भोगेच्छा भी नहीं रहने से, तन-पुष्टि राग भी भग जाता॥१०॥ जग में हैं पुरुष अनेक भरे, जो असि के तीक्षण वार सहें। अति क्रूर केहरी वश करते, मतवाले गज से नहीं डरें॥११॥
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