________________
88
आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह
विसर्जन पाठ थी धन्य घड़ी जब निज ज्ञायक की, महिमा मैंने पहिचानी। हे वीतराग सर्वज्ञ महा-उपकारी, तव पूजन ठानी।।१।। सुख हेतु जगत में भ्रमता था, अन्तर में सुख सागर पाया। प्रभु निजानन्द में लीन देख, मोय यही भाव अब उमगाया ॥२॥ पूजा का भाव विसर्जन कर, तुमसम ही निज में थिर होऊँ। उपयोग नहीं बाहर जावे, भव क्लेश बीज अब नहिं बोऊँ ॥३॥ पूजा का किया विसर्जन प्रभु, और पाप भाव में पहुँच गया। अब तक की मूरखता भारी, तज नीम हलाहल हाय पिया॥४॥ ये तो भारी कमजोरी है, उपयोग नहीं टिक पाता है। तत्त्वादिक चिन्तन भक्ति से भी दूर पाप में जाता है।।५।। हे बल-अनन्त के धनी विभो ! भावों में तबतक बस जाना। निज से बाहर भटकी परिणति, निज ज्ञायक में ही पहुँचाना ।।६।। पावन पुरुषार्थ प्रकट होवे, बस निजानन्द में मग्न रहूँ। तुम आवागमन विमुक्त हुए, मैं पास आपके जा तिष्ह् ।।७।।
स्वयं में प्रवाहित चैतन्यधारा,
झलकते हैं जिसमें विचित्र ज्ञेयाकारा। रहे भिन्न ज्ञेयों से चित् निराकार,
त्रिकाली निजातम जिसमें निहारा ।। स्वयं ध्यान ध्याता स्वयं ध्येय रूपं,
चिदानन्द चैतन्य चिन्मय अनूपं । हुआ धन्य पाकर तुम्हें जिनराजं,
शरण ली अहो आज चैतन्यराजं ।।
-इन्द्रध्वज विधान, पृष्ठ ६९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org