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________________ 84 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह यही भावना स्वयं स्वयं में, तृप्त रहूँ प्रभु तुष्ट रहूँ। ध्येय रूप निज पद को ध्याते, ध्याते शिवपद प्रगट करूँ॥ ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय जयमाला महाऽयं निर्वपामिति स्वाहा । (दोहा) ज्ञाता हो दाता बनें, रंच न हो अभिमान । धर्म तीर्थ जयवन्त हो, उत्तम त्याग महान ॥ ॥ पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि ॥ श्री मुनिराज पूजन (वीरछन्द) विषयाशा आरम्भ रहित जो, ज्ञान ध्यान तप लीन रहें। सकल परिग्रह शून्य मुनीश्वर, सहज सदा स्वाधीन रहें। प्रचुर स्व-संवेदनमय परिणति, रत्नत्रय अविकारी है। महा हर्ष से उनको पूजें, नित प्रति धोक हमारी है। ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवी आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिश्वराः ! अत्र अवतर अवतर। ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिश्वराः! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिश्वराः! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् (अवतार) मुनिमन सम समता नीर, निज में ही पाया। नाशें जन्मादिक दोष, शाश्वत पद भाया॥ गुण मूल अठाइस युक्त, मुनिवर को ध्यावें। अपना निग्रंथ स्वरूप, हम भी प्रगटावें॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो जन्ममरामृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा। चन्दन सम धर्म सुगन्ध, जग में फैलावें। बैरी भी बैर विसारि, चरणन सिर नावें ॥गुण मूल.॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो संसारतापविनाशनाय चंदनं नि. स्वाहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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