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________________ 78 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह दिव्यतत्त्व दर्शावनहारी, दिव्यज्ञान प्रगटावन हारी। जयवन्ते जग में जिनवाणी, तत्त्वज्ञान पावें सब प्राणी॥ (दोहा) जिनवाणी है द्रव्यश्रुत, ज्ञानभाव श्रुतज्ञान। अभ्यासो नित द्रव्यश्रुत, प्रगटे ज्ञान महान ।। ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै अनर्घ्यपद-प्राप्तये जयमालायँ निर्व. स्वाहा। (सोरठा) परम प्रीति उरधार, जिनवाणी पूजा रची। आतम रूप निहार, मोह मिटा आनन्द हुआ॥ ॥ पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि ॥ श्री निर्वाणक्षेत्र पूजन (गीतिका) है तीर्थ शाश्वत आत्मा उसका आराधन जो करें। वे आत्म आराधक जगत में चरण पावन जहँ धरें। वे तीर्थक्षेत्र कहाय सुखकर भाव से पूजन करूँ। हो आत्म साधक रत्नत्रय, परिपूर्ण कर भव से तिरूँ॥ ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति तीर्थङ्कर निर्वाणक्षेत्राणि! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। (अवतार) मलहारी जल कहलाय, अन्तर्मल : हरे। अन्तर्मल सहज नशाय, सो सम्यक् जल ले॥ सम्मेद शिखर गिरनार, चम्पा पावापुर। कैलाश आदि सुखकार, पूजत हर्षे उर।। ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति तीर्थङ्कर निर्वाणक्षेत्रेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. । क्रोधादिक अनल समान, दाह करें दुखकर। करने उनका अवसान, अनुपम चन्दन धर ।।सम्मेद. ।। ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति तीर्थङ्कर निर्वाणक्षेत्रेभ्यो संसारतापविनाशनाय चन्दनं नि.स्वाहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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