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आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह
(छन्द-त्रोटक) जय महावीर जय वर्धमान, अतिवीर वीर सन्मति महान । प्रभुवर को केवलज्ञान हुए, छियासठ दिन अरे व्यतीत हुए। नित समवशरण भर जाता था, पर योग नहीं बन पाता था। कुछ नहीं समझ में आता था, भव्यों का मन अकुलाता था। जब काल दिव्यध्वनि खिरने का, गौतम आदिक के तिरने का। आया मंगलकारी जिनवर, तब इन्द्र अवधि जोड़ा सत्वर । सब समझ शिष्य का वेश लिया, गौतम समीप तब गमन किया। बोले मेरे गुरु महावीर, हैं मौन ‘काव्य' अति ही गंभीर ।। भावार्थ बताओ सुखकारी, 'त्रैकाल्यं' काव्य पढ़ा भारी। कुछ अर्थ समझ में नहीं आया, गौतम का माथा चकराया। शिष्यों संग वीर समीप चला, कुछ होनहार था परम भला। जब समवशरण दिखलाया था, विस्मित हो अति हर्षाया था। देखत मानस्तम्भ मान गला, प्रभु दर्शन कर सम्यक्त्व मिला। कहकर नमोस्तु दीक्षा धारी, हुए चार ज्ञान अति सुखकारी॥ गणधर का सहज निमित्त मिला, भव्यों का भी शुभ भाग्य खिला। प्रभु दिव्यध्वनि मंगलकारी, सब जग की अति ही हितकारी॥ सुनकर भविजन प्रतिबुद्ध हुए, दीक्षा ले बहुजन शिष्य हुए। वीर शासन तब से वर्ताया, है महाभाग्य हम भी पाया ।। है स्वानुभूतिमय स्वयं सिद्ध, जिनशासन चिर से ही प्रसिद्ध। जिसमें सब जीव समान कहे, स्वभाव से ही भगवान कहे। देहादिक पुद्गल बतलाये, रागादिक दुख हेतु गाये। शिवकारण सम्यक् रत्नत्रय, परिणति निज में ही होय विलय ॥ अपना सुख-ज्ञान सु अपने में, अपनी प्रभुता है अपने में। पहिचाने बिन भव भ्रमते हैं, आराधन कर प्रभु बनते हैं।
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