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________________ 63 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह श्री सम्यक्चारित्र विषयचाह की दाह शमित हो, सम्यक्चारित्र धारूँ मैं। रत्न अमोलक दुर्लभ पाया, करि पुरुषार्थ सम्हारूँ मैं। स्व-पर दयामय तेरह भेद सु, निश्चय निज में लीनता। त्याD भोग परिग्रह दुखमय, जिनमें प्रतिक्षण दीनता। हो स्वाधीन करूँ शिव साधन, जासों निज पद पावना। लोक शिखर पर सहज विराजूं, फेरि न भव में आवना ।। ॐ ह्रीं श्री त्रयोदशविध सम्यक्चारित्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि. स्वाहा । समुच्चय जयमाला (सोरठा) सम्यग्दर्शन ज्ञान, अरु चारित्र की एकता। ये ही पथ निर्वान, निश्चय आत्मस्वरूप है ।। महिमा अपरम्पार, वचन अगोचर ज्ञानमय। वन्दूँ बारम्बार, गाऊँ जयमाला सुखद ।। (छन्द-पद्धरि) सम्यक् रत्नत्रय आत्मरूप, सम्यक रत्नत्रय शिव स्वरूप। सम्यक् रत्नत्रय त्रिजगसार, इस ही से हो भव सिन्धु पार ।। सम्यक् रत्नत्रय ज्योति रूप, नहिं रहे लेश तम मोह रूप। निज रत्नत्रयमय शुद्ध भाव, प्रगटे विघटे दुखमय विभाव। सम्यक्रत्नत्रय हित उपाय, चिर विधि बन्धन सहजहिं नशाय । ये ही भविजन को परम श्रेय, प्रगटाने योग्य सु उपादेय ॥ धनि धनि रत्नत्रय धरूँ सार, त्रैलोक्य पूज्य निजपद निहार । अशरण जग में है शरण भूत, जिनवचन कहा सत्यार्थ रूप॥ ताको सुयत्न है भेदज्ञान, श्री देव-शास्त्र-गुरु निमित्त जान। जिनकथित तत्त्व का हो अभ्यास, हो स्वानुभूति लीला विलास ॥ हो उदित सहज सम्यक्त्व सूर्य, रागादि विजय को बजे तूर्य। वर्ते निर्मल उत्तम विचार, वैराग्य भावना बढ़े सार ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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