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आध्यात्मिक पूजन- विधान संग्रह
तव दिव्यध्वनि में दिव्य-आत्मिक, भाव उद्घोषित हुए। गणधर गुरु आम्नाय में, शुभ शास्त्र तब निर्मित हुए || निर्ग्रन्थ गुरु के ग्रन्थ ये, नित प्रेरणायें दे रहे । निजभाव अरु परभाव का, शुभ भेदज्ञान जगा रहे ॥ इस दुषम भीषण काल में, जिनदेव का जब हो विरह । तब मात सम उपकार करते, शास्त्र ही आधार हैं || जग से उदास रहें स्वयं में, वास जो नित ही करें। स्वानुभव मय सहज जीवन, मूल गुण परिपूर्ण हैं | नाम लेते ही जिन्हों का, हर्ष मय रोमाँच हो । संसार - भोगों की व्यथा, मिटती परम आनन्द हो ॥ परभाव सब निस्सार दिखते, मात्र दर्शन ही किए। निजभाव की महिमा जगे, जिनके सहज उपदेश से || उन देव-शास्त्र-गुरु प्रति, आता सहज बहुमान है। आराध्य यद्यपि एक, ज्ञायकभाव निश्चय ज्ञान है | प्रभु ! अर्चना के काल में भी, भावना ये ही रहे । धन्य होगी वह घड़ी, जब परिणति निज में रहे ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्योऽनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालाऽर्घ्यं नि. स्वाहा ।
(दोहा)
अहो कहाँ तक मैं कहूँ, महिमा अपरम्पार ।
निज महिमा में मगन हो, पाऊँ पद अविकार | ॥ पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि ॥
जिंदगी छोटी है और जंजाल लंबा है, इसलिए जंजाल छोटा कर लो तो सुखरूप जिंदगी लम्बी लगेगी।
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