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________________ 23 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह मैं वन्दौं जिनराज को, धर उर समता भाव। तन-धन-जन-जगजाल से, धरि विरागता भाव॥९॥ यही भावना है प्रभो, मेरी परिणति माहिं। राग-द्वेष की कल्पना, किंचित् उपजै नाहिं ॥१०॥ पूजा पीठिका (भाषा) (छन्द-सखी) अरहन्त सिद्ध सूरि नामा, उवझाय साधु गुणधामा। परमेष्ठी पद सुखकारी, पूजन करिहों दुःखहारी। ॐह्रीं अनादिमूलमन्त्रेभ्यो नमः पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि (छन्द-झूलना) चार मंगल शरण श्रेष्ठ हैं लोक में, आप्त अविनाशी साधु दयामय धरम । अन्य में ढूँढना सुख दुःखकार है, वे स्वयं सुख रहित सुख न उनका मरम ।। हे प्रभो आपको निरख निश्चय हुआ, शरण अपनी से कटते स्वयं सब करम। बाह्य दृष्टि तनँ अब निजातम भनूँ, ___ लीन निज में हुए से मिले पद परम ।। ॐ नमोऽर्हते स्वाहा पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि मंगल विधान (भाषा) हूँ द्रव्यदृष्टि से अति पवित्र, परिणति ही मात्र अपावन है। चिर से ही पर में भ्रमित रही, शुचिकारी तव आराधन है। हे प्रभो ! शान्त नासाग्र दृष्टि, थिर मुद्रा हमें बताती है। शान्ति शुचिता अन्तर में है, बाहर से कभी न आती है। है रूप हमारा मंगलमय, आराध्य हमारे मंगलमय । रागादि विकारी भाव भगें, परिणति भी होवे मंगलमय ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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