SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 236 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह उस प्रकार मैं निज परिणति में, ज्ञायक का प्रतिबिम्ब धरूँ ! रत्नत्रय से होय प्रतिष्ठा, त्रिजग पूज्य पद प्राप्त करूँ !! ॐ ह्रीं श्री कृत्रिम जिनबिम्बेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं नि. स्वाहा। श्री नन्दीश्वर द्वीप के जिनालयों को अर्घ्य यह अरघ कियो निज हेत, तुमको अरपतु हों। 'द्यानत' कीज्यो शिवखेत, भूमि समरपतु हो। नन्दीश्वर श्री जिनधाम, बावन पुंज करों। वसुदिन प्रतिमा अभिराम, आनन्द भाव धरों। ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणदिशिद्विपंचासजिनालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो नमः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि. स्वाहा।। श्री पंचमेरु के जिनालयों को अर्घ्य आठ दरबमय अरघ बनाय, 'द्यानत' पूजौं श्रीजिनराय। महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ।। पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करहुँ प्रणाम। महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ।। ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शन-विजय-अचल-मन्दरविद्युन्मालीपंचमेरुसम्बन्धि अशीतिः जिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यो नमः अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं नि. स्वाहा।। श्री सोलहकारण को अर्घ्य जल फल आठों दरब चढ़ाय, 'द्यानत' वरत करों मन लाय। परमगुरु हो, जय-जय नाथ परमगुरु हो।। दरशविशुद्धि भावना भाय-सोलह तीर्थंकर पद पाय। __ परमगुरु हो, जय-जय नाथ परमगुरु हो। ॐ ह्रीं श्रीदर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्योऽनर्घ्यपद-प्राप्तये अयं नि. स्वाहा। श्री दशलक्षण धर्म को अर्घ्य आठों दरब संवार, ‘द्यानत' अधिक उछाह सों। भव आताप निवार, दशलक्षण पूजों सदा ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy