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आध्यात्मिक पूजन- विधान संग्रह
परलक्षी वृत्ति ही आकर, शिवसाधन में विघ्न करे । हो पुरुषार्थ अलौकिक ऐसा, सावधान हर समय रहे । नहीं दीनता, नहीं निराशा, आतम शक्ति अनंत है ॥ धन्य ॥ ८ ॥ चाहे जैसा जगत परिणमे, इष्टानिष्ट विकल्प न हो। ऐसा सुन्दर मिला समागम, अब मिथ्या संकल्प न हो ॥ शान्तभाव हो प्रत्यक्षं भासे, मिटे कषाय दुरन्त है ॥ धन्य. ॥९॥ यही भावना प्रभो स्वप्न में भी, विराधना रंच न हो । सत्य, सरल परिणाम रहें नित, मन में कोई प्रपंच न हो ॥ विषय कषायारम्भ रहित, आनन्दमय पद निर्ग्रन्थ है ॥ धन्य...॥१०॥ धन्य घड़ी हो जब प्रगटावे, मंगलकारी जिनदीक्षा ।
प्रचुर स्वसंवेदनमय जीवन, होय सफल तब ही शिक्षा ॥ अविरल निर्मल आत्मध्यान हो, होय भ्रमण का अंत है ॥ धन्य ॥११॥
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अहो जितेन्द्रिय जितमोही ही, सहज परम पद पाता है । समता से सम्पन्न साधु ही, सिद्ध दशा प्रगटाता है ॥ बुद्धि व्यवस्थित हुई सहज ही, यही सहज शिवपंथ है ॥ धन्य. ॥१२॥ आराधन में क्षण-क्षण बीते, हो प्रभावना सुखकारी । इसी मार्ग में सब लग जावें, भाव यही मंगलकारी ॥ सद्दृष्टि-सद्ज्ञान-चरणमय, लोकोत्तम यह पंथ है ॥ धन्य. ॥१३॥ तीनलोक अरु तीनकाल में, शरण यही है भविजन को । द्रव्य दृष्टि से निज में पाओ, व्यर्थ न भटकाओ मन को ॥ इसी मार्ग में लगें - लगावें, वे ही सच्चे संत हैं | धन्य ॥ १४ ॥
है शाश्वत अकृत्रिम वस्तु, ज्ञानस्वभावी आत्मा । जो आतम आराधन करते, बनें सहज परमात्मा ॥ परभावों से भिन्न निहारो, आप स्वयं भगवंत है ॥ धन्य ॥ १५ ॥
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