SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 182 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह अन्तिम शुक्लध्यान प्रगटाया, शेष अघाति विमुक्त हुए। कार्तिक कृष्ण अमावस के दिन, वीर जिनेश्वर सिद्ध हुए। भावसहित प्रभु करूँ अर्चना, शुद्धातम कल्याणस्वरूप। आनन्द सहित आपसम ध्यावे, पावें अविचल बोध अनूप । ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णमावस्यायां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अयं नि.। जयमाला (सोरठा) वर्द्धमान श्रीवीर, सन्मति अरु महावीर जी। जयवन्तो अतिवीर, पंचनाम जग में प्रसिद्ध । (जोगीरासा) चित्स्वरूप प्रगटाया प्रभुवर, चित्स्वरूप प्रगटाया। स्वयं स्वयंभू होय जिनेश्वर, चित्स्वरूप प्रगटाया ।।टेक।। हो सबसे निरपेक्ष सिंह के, भव में सम्यक् पाया। स्वाश्रित आत्माराधन का ही, सत्य मार्ग अपनाया ॥१॥ बढ़ती गई सु भाव-विशुद्धि, दशवें भव में स्वामी। आप हुए अन्तिम तीर्थंकर, भरतक्षेत्र में नामी ॥२॥ इन्द्रादिक से पूजित जिनवर, सम्यक्ज्ञानि विरागी। इन्द्रिय भोगों की सामग्री, दुख निमित्त लख त्यागी ॥३॥ जब विवाह प्रस्ताव आपके, सन्मुख जिनवर आया। आत्मवंचना लगी हृदय में, दृढ़ वैराग्य समाया ॥४॥ अज्ञानी सम भव में फँसना, 'क्या इसमें चतुराई?'। भव-भव में भोगों में फँसकर, भारी विपदा पाई ॥५॥ उपादेय निज शुद्धातम ही, अब तो भाऊँ ध्याऊँ। धरूँ सहज मुनिधर्म परम साधक हो शिवपद पाऊँ ॥६॥ इस विचार का अनुमोदन कर, लौकान्तिक हर्षाये। आप हुए निर्ग्रन्थ ध्यान से, घाति कर्म भगाये ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy