________________
161
आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह महामोहतम प्रभु तुम्हीं तो नशाते,
सहज ज्ञानमय ज्योति तुम ही जलाते। सुगम मोक्षमारग तुम्ही प्रभु दिखाते,
सरस ज्ञान गंगा तुम्ही हो बहाते ।। विषयों के फन्दे से तुम ही छुड़ाते,
चर्तुगति दुःखों से तुम्हीं तो बचाते। परम ज्ञान वैराग्य तुम ही जगाते,
निर्ग्रन्थ पथ में तुम्हीं प्रभु बढ़ाते। हो निरपेक्ष बान्धव तुम्हीं साँचे जग में,
__तुम्ही मार्गदर्शक अहो मोक्षमग में। हुआ मैं निशंकित तुम्हारे वचन से,
परम सौख्य पाया स्वयं अनुभवन से॥ कहाँ तक कहूँ नाथ महिमा तुम्हारी, __न शब्दों में शक्ति प्रभो ! इतनी धारी। चिन्तन तुम्हारा नहीं पार पावे,
अहो स्वानुभव में न आनंद समावे॥ खिला पुण्य मेरा, मिला दर्श तेरा,
यही भावना होय वन माँहिं डेरा। हो निर्ग्रन्थ मुद्रा महासुखकारी,
सहज ध्यान में कर्म नाशे विकारी॥ नहीं कामना कोई निष्काम वर्ते,
परम समरसी भाव निर्मान वर्ता। नहीं क्षोभ आवे परम शांत वर्ते,
निर्द्वन्द्व निर्मूढ़ निर्धान्त वा॥ विशुद्धि जिनेश्वर सु बढ़ती ही जावे,
परम-भाव में वृत्ति रमती ही जावे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org