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________________ 126 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह आत्मानुभूतिमय अहो परमार्थ तीर्थ है। जिससे तिरें भवसिन्धु वह सत्यार्थ तीर्थ है। निजभाव में रमते सदा तुम ही सु राम हो। निष्काम परमब्रह्म हो आनन्दधाम हो। परमार्थ मुक्तिमार्ग के हो आप विधाता। विश्वेश विष्णु रूप हो सब विश्व के ज्ञाता॥ अतिशय तुम्हें जो देखते वे दर्शनीय हों। जो भावसहित पूजते वे पूजनीय हों। वाँछा ही मिटे देव तुम्हारे सु ध्यान से। हो प्रगट आत्मीकभाव आत्म-ध्यान से। प्रभु ! ध्यानमय मुद्रा सहज वैराग्य जगाती। रागांश हों निश्शेष ज्ञान ज्योति जगाती ।। चैतन्यमय परमार्थ भावना सहज रहे। भवनाश हो शिववास हो दुर्भावना दहे। गद्-गद् हुआ बहुमान से, बस मौन ही रहूँ। नाथ हो निर्ग्रन्थ तेरा पंथ मैं गहूँ॥ तेरे प्रसाद से सहज समाधि पाऊँगा। ज्ञाता हूँ मुक्त ज्ञातारूप ही रहाऊँगा। __(घत्ता) श्रीचन्द्र जिनेशं, जय जगदेशं, धर्मेशं भवसर-तारी। अद्भुत प्रभुतामय, हुआ सु निर्भय, पूजत पद मंगलकारी॥ ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा । (दोहा) समयसारमय आपकी, प्रभुता तिहुँजग सार। विस्मय उपजावे प्रभो, भुक्ति मुक्ति दातार ।। ॥ पुष्पांजलिं क्षिपामि ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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