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क्रमबद्धपर्याय : कुछ प्रश्नोत्तर
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3. पर्यायों में परिवर्तन की भी एक मर्यादा है, और वह भी नियमित है, हमारी इच्छानुसार नहीं, बल्कि अपने निश्चित क्रमानुसार बदलती है।
4. यद्यपि जीव अपने परिणामों का कर्त्ता है, तथापि उनके करने का बोझा उसके माथे पर नहीं है, क्योंकि वह परिणमन भी सहज और नियमित क्रम में होता है । परिणमन को निश्चित बताकर द्रव्य-गुण का अधिकार कम नहीं किया गया है, अपितु बोझा हटाया गया है, क्योंकि वह अपने परिणामों का अधिकृत कर्ताभोक्ता तो है ही ।
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5. द्रव्य और गुण के समान पर्याय भी सत् है, परन्तु परिणमनशील होने से अज्ञानी उसमें इच्छानुसार परिवर्तन करना चाहता है। पर्याय भी स्वकाल की सत् है, अतः उसमें कोई फेरफार करना सम्भव नहीं है - ऐसी श्रद्धा करने से उनमें फेरफार की बुद्धि नहीं रहेगी।
6. जो लोग पर्यायों के क्रम में परिवर्तन करना चाहते हैं, उन्हें विचार करना चाहिए कि अनादि-अनन्त प्रवाहक्रम में भूतकाल की पर्यायें तो उत्पन्न होकर नष्ट हो चुकीं, अतः उनमें परिवर्तन करने का प्रश्न ही नहीं उठता; तथा वर्तमान पर्यायें तो उत्पन्न हो ही गईं, उनका काल भी एक समय का है, अतः उन्हें उखाड़ फेंकना सम्भव नहीं है। वे उत्पन्न होने के असंख्य समय बाद हमारे ज्ञान में आती हैं, अतः जब तक हम उन्हें जानेंगे तब तक वे नष्ट हो चुकी होती हैं, अतः वर्तमान पर्यायों में भी फेर - फार सम्भव नहीं है। इसीप्रकार भविष्य की पर्यायें अभी उत्पन्न ही नहीं हुईं। अतः उन्हें बदलना सम्भव नहीं है।
यदि कोई यह कहे कि हम चुन-चुन कर अच्छी पर्यायें लायेंगे, तो निम्न आपत्तियाँ उपस्थित होंगी:
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अ) कौन सी पर्यायें अच्छी हैं और कौन सी बुरी ? इसका निर्णय कौन करेगा? ब) भविष्य में कौन सी पर्याय आएगी - यह तो हमें पता नहीं, फिर उसे रोककर दूसरी पर्याय उत्पन्न करने का प्रयत्न कैसे करेंगे? जो पर्याय होगी वह नहीं होने वाली थी और आपने उसे उत्पन्न किया है, यह निर्णय कैसे होगा? जिस
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