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क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका काल संसार-भ्रमण शेष रहने पर भी सम्यक्त्व प्राप्ति हो जाएगी। किन्तु ऐसा मानना आगम विरुद्ध है, अतः काल को भी नियत मानना अनिवार्य है।
4. काल को नियत मानने में पुरुषार्थ व्यर्थ हो जाएगा - ऐसा मानना भी मिथ्या है, क्योंकि समय से पहले कार्य होने में पुरुषार्थ की सार्थकता नहीं अपितु समय पर कार्य होने में ही पुरुषार्थ की सार्थकता है, क्योंकि समय पर गेहूँ पकने से किसान का पुरुषार्थ व्यर्थ नहीं होता।
5. जिस द्रव्य की जो पर्याय जिस समय होनी है वह अवश्य होगी- ऐसा जानकर सम्यग्दृष्टि सम्पत्ति में हर्ष और विपत्ति में विषाद नहीं करता, तथा सम्पत्ति पाने के लिए और विपत्ति को दूर करने के लिए देवी-देवताओं के आगे गिड़गिड़ाता भी नहीं है। इसप्रकार कार्तिकेयानुप्रेक्षा का उक्त कथन सार्वभौमिक सिद्ध होता है, तथा पुरुषार्थ की सार्थकता भी सिद्ध होती है।
6. एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का भला बुरा नहीं कर सकता, तथा जो पर्याय जब जैसी जिस विधि से होनी है, वैसी ही होगी, उसे इन्द्र तो क्या जिनेन्द्र भी नहीं पलट सकते; तो फिर व्यन्तर आदिसाधारण देवी-देवताओं की क्या सामर्थ्य है? - इसी शाश्वत सत्य के आधार पर पराधीनता और दीनता नष्ट होती है। ___7. यदि उक्त कथन को सार्वभौमिक सत्य न माना जाए तो निम्न प्रश्न खड़े होते हैं?
क्या असत्य के श्रद्धान से गृहीत मिथ्यात्व छूटेगा?
क्या कोई कार्य समय से पहले किया जा सकता है? निश्चित समय स्वीकार किये बिना समय से पहले' का क्या अर्थ है? समय से पहले कार्य होने में पुरुषार्थ हो तो जो कार्य निश्चित समय पर होते हैं क्या वे बिना पुरुषार्थ के होते हैं?
8. उक्त प्रश्नों के सन्दर्भ में विचार किया जाए तो क्रमबद्ध परिणमन व्यवस्था शाश्वत सत्य सिद्ध होती है। अन्यथा सर्वज्ञता के निषेध का प्रसंग तो आता ही है।
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