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क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका
प्रत्येक पर्याय स्वकाल में सत् है
__ गद्यांश 21 प्रत्येक द्रव्य पर्वत है.............. .............होने का एक काल है।
(पृष्ठ 37 पैरा 7 से पृष्ठ 39 पैरा 4 तक) विचार बिन्दु :
1. जिसप्रकार द्रव्य पर्वत के समान अचल है, उसी प्रकार पर्याय भी अचला है, उसे चलायमान करना सम्भव नहीं है। द्रव्य के समान पर्याय स्वभाव भी अनन्त शक्तिशाली है। उसे उसके स्वसमय से हटाने में कोई भी समर्थ नहीं है। . 2. द्रव्य त्रिकाल का सत् है, और पर्याय स्वकाल की सत् है अर्थात् वह भी सती है। उसे छेड़ने की मान्यता घोर अपराध है, जिसका फल चतुर्गति में भ्रमण है। ___ 3. द्रव्य गुण की अचलता हमें सहज स्वीकृत है, इसलिए उनमें परिवर्तन करने का विकल्प नहीं आता, परन्तु पर्याय की अचलता हमारे ख्याल में नहीं आती, अतः उसमें फेरफार करने की बुद्धि बनी रहती है, जो क्रमबद्ध पर्याय को समझने से मिट जाती है।
4. पर्यायों में फेरफार करने की बुद्धि ही अज्ञान है, यही कर्तावाद है, जिसका निषेधसमयसार के कर्ताकर्म अधिकार और सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार में किया गया है।
5. एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं है, तथा द्रव्य अपनी पर्यायों का कर्ता होते हुए भी उनमें फेरफार कर्ता नहीं है-यही जैन-दर्शन के अकर्त्तावाद का चरम बिन्दु है।
6. स्वभाव-सन्मुख दृष्टि होकर सम्यग्दर्शन प्राप्त होना ही क्रमबद्धपर्याय की सच्ची श्रद्धा है। सम्यग्दर्शन ही उसका फल है। यदि क्रमबद्धपर्याय को मानने पर भी स्वभावसन्मुख दृष्टि नहीं हुई, तो समझना चाहिए कि हमें शास्त्रज्ञान से उत्पन्न धारणारूप विकल्पात्मक श्रद्धा मात्र हुई है, सच्ची श्रद्धा नहीं।
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