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क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन मन्दकषाय के निमित्त से व्रतादिरूप क्रिया होने पर भी अभिप्राय की सूक्ष्मभूल का निरूपण करते हुए पण्डितजी पृष्ठ 249 पर लिखतें हैं : ___ "तथा कितने ही जीव अणुव्रत-महाव्रतादिरूप यथार्थ आचरण करते हैं और आचरण के अनुसार ही परिणाम हैं, कोई माया-लोभादिक का अभिप्राय नहीं हैउन्हें धर्म जानकर मोक्ष के अर्थ उनका साधन करते हैं, किन्हीं स्वर्गादिक के भोगों की भी इच्छा नहीं रखते; परन्तु तत्त्वज्ञान पहले नहीं हुआ, इसलिए आप तो जानते भी नहीं, केवल स्वर्गादिक ही का साधन करते हैं। कोई मिसरी को अमृत जानकर भक्षण करे तो उससे अमृत का गुण तो नहीं होता; अपनी प्रतीति के अनुसार फल नहीं होता, फल तो जैसे साधन करे वैसा ही लगता है।"
उक्त गद्याँश में क्रिया, परिणाम और अभिप्राय की स्थिति निम्नानुसार व्यक्त की गई है।
क्रिया :- अणुव्रत-महाव्रतादिरूप यथार्थ आचरण करते हैं।
परिणाम :- आचरण के अनुसार परिणाम है; माया लोभादिक का अभिप्राय (भाव) नहीं है, स्वर्गादिक के भोगों की इच्छा भी नहीं हैं। __ अभिप्राय :- उन्हें धर्म जानकर मोक्ष के लिए उनका साधन करते हैं, आप तो जानते है कि मैं मोक्ष का साधन कर रहा हूँ; परन्तु जो मोक्ष का साधन है, उसे जानते भी नहीं। ___ यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि यहाँ व्यवहाराभासी मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिङ्गी मुनि की बात है। चतुर्थ और पञ्चम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिङ्गियों की बात नहीं है। द्रव्यलिङ्गी और मिथ्यादृष्टि पर्यायवाची नहीं हैं। इनमें बहुत अन्तर है। द्रव्यलिङ्ग तो जीव की अणुव्रत-महाव्रतादिरूप बाह्यक्रिया है, जो व्यवहार चारित्र होने से व्यवहार से पूज्य है और मिथ्यात्व तो जीव की विपरीत मान्यता होने से निन्द्य है, त्याज्य है । अतः‘द्रव्यलिङ्गी
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