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सम्यक्चारित्र के लिए किए गए विपरीत प्रयत्नों के सन्दर्भ में ... ___ यदि कदाचित् जिनेन्द्र-देव के गुणानुवाद वाली रचनायें बोलें तो भी हम स्वर, ताल, वाद्ययन्त्र, नृत्य आदि की इतनी अधिक मुख्यता कर लेते हैं कि मूलभाव का उनसे कोई तालमेल नहीं बैठता।
भक्ति के एक कार्यक्रम में बड़े भाव-विभोर होकर तालियाँ बजाबजा कर निम्न पंक्तियाँ गाई जा रही थीं :
हमने तो घूमी चार गतियाँ, न मानी जिनवाणी की बतियाँ
नरकों में बहु दुःख उपजाये, पशु बनके बहु डण्डे खाए....
इस गीत के साथ तीव्र-गति से तबला, ढोलक आदि वाद्ययन्त्र बज रहे थे और एक युवक उसी लय पर कमर हिला हिलाकर नाच रहा था।
जरा सोचिए..... उक्त गीत के भावों के साथ तालियों का और उत्साह पूर्वक झूम-झूमकर नाचने का कोई तालमेल है ? इस गीत के समय तो चारों गति के दुःखों का स्मरण करके खेद वर्तना चाहिए। इसे ‘परिणाम सुधरनेबिगड़ने का विचार नहीं है' न कहा जाए तो क्या कहा जाए ?
तत्त्व से अनभिज्ञ भोले-भाले लोगों को नाच-गान में ही अधिक आनन्द आता है तथा उन्हें ऐसा लगता है कि दान में दिया गया पैसा वसूल हो गया। आयोजक भी विद्वानों से यही अपेक्षा रखते हैं कि पडितजी ऐसा कार्यक्रम करायें कि लोगों को मजा आ जाए और गंभीरता से विचार किए बिना पडितजी को भी ऐसा कार्यक्रम कराना पड़ता है कि लोगों को मजा आ जाए, तथा आयोजकों को अधिक से अधिक पैसा मिल जाये।
मधुर कण्ठ के धनी और स्वर-ताल के रसिक लोगों के परिणाम तो बहुत जल्दी मूलभाव से विचलित हो जाते हैं। यदि पूजन-पाठ की धुन, स्वर, लय आदि उनकी इच्छानुकूल न हुए तो उनका मूड खराब हो जाता है और पूजन-पाठ बोलते या सुनते हुए भी उनके परिणाम संक्लेशरूप हो जाते हैं। यदि सब कुछ उनके पसन्द के अनुसार हुआ तो वे उसी में तन्मय होकर भाव-विभोर होकर पूजन-पाठ करते हैं।
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