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क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन उत्तर :- यद्यपि व्यापार में हानि का निमित्त होने से वह परिणाम बिगड़ा हुआ है; तथापि आत्महित की दृष्टि से वह परिणाम सुधरा हुआ ही कहा जाएगा। धन्धे-व्यापार, विषय-कषाय आदि के परिणामों का बिगड़ना अर्थात् उनमें मन्दता होना, उत्साह-हीन होना - इसमें ही आत्महित के अवसर हैं।
धर्मबुद्धि से धर्मधारक व्यवहाराभासी का प्रकरण प्रारम्भ करने के पहले पण्डित टोडरमलजी ने व्यवहाराभासी धर्मधारकों की सामान्य प्रवृत्ति का मार्मिक चित्रण करते हुए उनके भक्ति, दान, व्रत, तप, पूजा तथा शास्त्राभ्यास आदि धर्माचरण का तथा उस समय होने वाले परिणामों के स्वरूप का वर्णन किया है। पृष्ठ 220 पर किया गया निम्न वर्णन बारम्बार पठनीय है। “उक्त व्यवहाराभासी धर्मधारकों की सामान्य प्रवृत्तिअब, इनके धर्म का साधन कैसे पाया जाता है, सो विशेष बतलाते हैं :
वहाँ कितने ही जीव कुलप्रवृत्ति से अथवा देखा-देखी लोभादि के अभिप्राय से धर्म साधते हैं, उनके तो धर्मदृष्टि नहीं है। ___ यदि भक्ति करते हैं तो चित्त तो कहीं है, दृष्टि घूमती रहती है और मुखसे पाठादि करते हैं व नमस्कारादि करते हैं। परन्तु यह ठीक नहीं है। मैं कौन हूँ। किसकी स्तुति करता हूँ, किस प्रयोजन के अर्थ स्तुति करता हूँ, पाठ में क्या अर्थ है; सो कुछ पता नहीं है। ___ तथा कदाचित् कुदेवादिक की भी सेवा करने में लग जाता है; वहाँ सुदेव-गुरु-शास्त्रादि व कुदेव-गुरु-शास्त्रादि की विशेष पहचान नहीं है। ____ तथा यदि दान देता है तो पात्र-अपात्र के विचार रहित जैसे अपनी प्रशंसा हो वैसे दान देता है।
तथा तप करता है तो भूखा रहकर महन्तपना हो वह कार्य करता है, परिणामों की पहचान नहीं है।
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