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क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन उक्त वाक्यांश में यह स्पष्ट किया गया है कि सम्यक्चारित्र की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील व्यवहाराभासी जीव बाह्यक्रिया पर दृष्टि रखता है अर्थात् चारित्रवन्त श्रावक या साधुओं के समान व्रत, शील, संयमादिरूप क्रियायें उसकी भी होती हैं, वह उन्हीं को धर्म मानकर उनका निर्दोष पालन करता है।
यहाँ यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि जिनकी क्रिया निर्दोष अर्थात् आगमानुकूल है; यहाँ उनके ही परिणाम और अभिप्राय का विश्लेषण करना है। जिनकी क्रिया का ही ठिकाना नहीं है अर्थात् जो पापाचरण में लिप्त हैं – ऐसे गृहस्थों की तथा जिनका धर्माचरण भी आगमानुकूल नहीं है, ऐसे कथित धर्मात्माओं की यहाँ बात नहीं है।।
बाह्यक्रियाओं का निर्दोष आचरण करने वालों के परिणामों की चर्चा करते हुए ही यह गया है कि परिणाम सुधरने-बिगड़ने का विचार नहीं है।'
प्रश्न :- परिणाम के बिगड़ने या सुधरने का क्या अर्थ है ?
उत्तर :- हमारा प्रयोजन दुःख दूर करना और सुखी होना है, और मोह-राग-द्वेष आदि सभी विकारीभाव दुःखरूप और दुःख का कारण होने से बिगड़े हुए परिणाम हैं, तथा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रादि स्वाश्रित वीतरागी परिणाम सुखरूप और सुख के कारण होने से सुधरे हुए परिणाम हैं। सामान्यतया बिगड़ने-सुधरने का यही अर्थ है। परन्तु यहाँ क्रिया के सन्दर्भ में बिगड़ने-सुधरने का अर्थ करना चाहिए। अतः जैसी धार्मिक क्रिया हो रही हो उस समय वैसे ही भाव न होना, उससे विपरीत भाव होना, बिगड़ा हुआ परिणाम है तथा वैसे ही भाव होना सुधरा हुआ परिणाम है।
प्रश्न:- यदि पूजन करते समय प्रवचन सुनने के या प्रवचन सुनते समय पूजन करने के भाव होने लगें तो वे परिणाम सुधरे कहे जायेंगे या बिगड़े ?
उत्तरः- दोनों ही कार्य अशुभ से बचने के उद्देश्य की पूर्ति करते हैं, अतः उन्हें बिगड़े कहने में संकोच होता है, परन्तु चित्त की वृति चञ्चल हुई
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