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अध्याय
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सम्यक्चारित्र के लिए किए गए विपरीत प्रयत्नों के सन्दर्भ में क्रिया, परिणाम और अभिप्राय
क्रिया, परिणाम और अभिप्राय के स्वरूप तथा जीवन में पड़ने वाले प्रभावों की पर्याप्त मीमांसा करने के पश्चात् अब उस मूल प्रकरण पर विस्तृत चर्चा करने का समय आ गया है, जिसमें आचार्यकल्प पण्डितप्रवर टोडरमलजी ने उक्त तीनों बिन्दुओं का भिन्न-भिन्न और स्पष्ट उल्लेख करते अभिप्राय की भूल का विशेष स्पष्टीकरण किया है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ के सातवें अधिकार में चार प्रकार के जैनाभासी मिथ्यादृष्टियों का वर्णन किया गया है । व्यवहाराभासी मिथ्यादृष्टियों का प्रकरण प्रारम्भ करते हुए पृष्ठ 213 पर पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं
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'अब व्यवहाराभासपक्ष के धारक जैनाभासों के मिथ्यात्व का निरूपण करते हैं - जिनागम में जहाँ व्यवहार की मुख्यता से उपदेश है, उसे मानकर बाह्य - साधनादिक ही का श्रद्धानादिक करते हैं, उनके सर्वधर्म के अंग अन्यथारूप होकर मिथ्याभाव को प्राप्त होते हैं - सो विशेष कहते है । "
उक्त गद्यांश में प्रयुक्त 'बाह्य साधनादिक ही का श्रद्धानादिक' वाक्यांश, अभिप्राय की विपरीतता को बताता है। 'सर्वधर्म के अंग अन्यथारूप होकर मिथ्याभाव को प्राप्त होते हैं- ऐसा कहकर पण्डितजी ने बाह्य-धर्माचरण पर विपरीत अभिप्राय का आरोप करके क्रियाओं को ही मिथ्याभाव के रूप में प्रस्तुत किया है।
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