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अहोभाग्य
मैं ज्ञायक हूँ- यह अनुभूति ही जिनका निर्मल अभिप्राय । शिवपुरपथ के पंथी मुनिवर भिन्न जानते मन-वच-काय ॥ तीन कषाय चौकड़ी विरहित आनन्द जिनका संवेदन। निर्ग्रन्थों के चरण कमल में करता हूँ शत-शत वन्दन ॥
कभी सोचा भी न था कि जिनागम का कोई अंश इतना भा जाएगा और उस पर इतना विस्तृत चिन्तन हो जाएगा कि वह स्वतन्त्र पुस्तक के रूप में आपके करकमलों में विद्यमान होगा।
यदि कोई पूछे कि इस पुस्तक में नया क्या है ? तो निश्चित रूप से मेरे पास इसका उत्तर नहीं है। तो फिर यह पुस्तक लिखने की आवश्यकता क्यों पड़ी ? इस प्रश्न का भी सन्तोष जनक उत्तर शायद मैं न दे सकूँ।।
वस्तुतः आध्यात्मिक सत्पुरुष पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामी की अमृत वाणी के माध्यम से आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी विरचित अमरकृति मोक्षमार्गप्रकाशक का परिचय मेरे जीवन की अपूर्व निधि है। डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल के श्रीमुख से इसका गहन विवेचन सुनकर इसकी अपूर्व महिमा और अधिक गहराई से भासित होने लगी। श्री टोडरमल दिगम्बर जैन सिद्धान्त महाविद्यालय, जयपुर में अनेक वर्षों तक इसका अध्यापन करते हुए इसके रग-रग से परिचित होकर मेरा जीवन सार्थक और सफल हो गया।
इसका सातवाँ अध्याय तो मानो जिनागम का प्रवेश द्वार है। पूज्य गुरुदेव श्री भी मुक्त कण्ठ से इसकी महिमा का बखान करते थे। उनकी उपस्थिति में सोनगढ़ में आयोजित प्रायः प्रत्येक शिविर में इसे उत्तम वर्ग में पढ़ाया जाता था, जो इसके महत्व का प्रबल प्रमाण है। ऐसा कोई स्वाध्याय प्रेमी मुमुक्षु न होगा जिसने इसका स्वाध्याय न किया हो। वर्तमान आध्यात्मिक क्रान्ति की इस अपूर्व लहर ने मुझे भी अपने में डुबो लिया। किसी महापुण्योदय से बाह्य-संयोग भी ऐसे मिले कि जिनागम का पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन ही मेरी जीवन चर्या बन गया। श्री कुन्दकुन्द कहान दिगम्बर जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट ने मुझे जीवन-यापन की चिन्ता से
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